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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ ४३ विशेषार्थ—कोई भी विवक्षित गुणधर्म जितने व्यक्तियों में सदृशल्प से पाये जाते हैं, उतने व्यक्तियों के समूह को यूथ कहते हैं। यहां पर मोक्षमार्ग स्वरूप सम्यादर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र में से एक-दो या तीनों से युक्त जो मोक्षमार्गी हैं, उनके प्रति प्रशस्त भावना पूर्वक अर्थात् निस्वार्थ धार्मिक भावना से अनुरंजित होना चाहिए । साधर्मी के प्रति सद्भाव प्रकट किया जाय, उनके साथ ठगाई अथवा धोखा वंचना, प्रतारणा आदि का भाव नहीं होना चाहिए।
यथायोग्य शब्द बड़े महत्त्व का है । वह जिस योग्यता का हो उसके अनुसार ही उसका सत्कारादि करना उचित है न कि हीनाधिक । क्योंकि कम करने पर अपना अभिमानादि प्रकट होता है और आंधक करने पर अविधेक । अतएव जिसमें ये दोनों ही कमियाँ न हों इस तरह से ही सहधर्मी के प्रति आदर, विनय आदि प्रकट करना चाहिए तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व सहित जीव की सहधर्मियों में वात्सल्यरूप प्रवृत्ति स्वाभाविक हुआ करती है । वह बनावटी या दिखावा नहीं होती । न वह अन्तरंग में किसी मोह, कषाय, स्वार्थ आदि भावों से ही प्रेरित हुआ करती है और न लोकानुरंजनादि के लिए बनावटी ही हुआ करती है । धर्म सादृश्य के कारण ही सर्मियों के प्रति वह प्रीति आदि प्रकट किया करता है। उन पर कोई संकट आ जाए तो यथाशक्ति उस संकट का निवारण करता है और परस्पर में सौहार्द बनाये रखता है ।।१७।।
अथ प्रभावनागुणस्वरूपं दर्शनस्य निरूपयन्नाह
अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् ।
जिनशासनमाहात्म्यप्रकाश: स्यात्प्रभावना ॥१८॥
'प्रभावना' स्यात् । कासौ ? 'जिनशासनमाहात्म्यप्रकाश: । जिनशासनस्थ माहात्म्यप्रकाशस्तु तपोज्ञानाद्यतिशयप्रकटीकरणं । कथं ? 'यथायथं' स्नपनदानपूजाविधानतपोमंत्रतंत्रादिविषये आत्मशक्त्यनतिक्रमेण । किं कृत्वा ? 'अपाकृत्य' निराकृत्य । कां ? 'अज्ञानतिमिरव्याप्ति' जिनमतात्परेषां यत्स्वपनदानादिविषयेऽज्ञानमेव तिमिरमन्धकारं तस्य व्याप्ति प्रसरम् ।।१८।।
अब सम्यग्दर्शन के प्रभावनागुण का निरूपण करते हुए कहते हैं
प्रज्ञानतिमिरव्याप्तिम्-अज्ञानरूपी अन्धकार के विस्तार को { अपाकृत्य ) दूर कर (यथायथं) अपनी शक्ति के अनुसार (जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः) जिनशासन के माहात्म्य को प्रकट करना (प्रभावना) प्रभावनागुण (स्यात्) है ।