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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४१ टोकार्थ-स्थितीकरण में जो 'च्चि' प्रत्यय हुआ है वह 'अभूततद्भाव' अर्थ में हुआ है। इसलिए 'अस्थितस्य दर्शनादेश्चलितस्यस्थितिकरणं स्थितीकरणं' अर्थात दर्शनादि से चलायमान होते हुए पुरुष को फिर से उसी नत में स्थित कर देना स्थितीकरण अंग है। कोई जीव बाह्य आचरण का यथायोग्य पालन करता हुआ भी श्रद्धा से भ्रष्ट हो जाता है तथा कोई दृढ़ श्रद्धानी होता हुआ भी शारीरिक अशक्तता या प्रमादादि के कारण बाह्य आचरण से भ्रष्ट है । कोई जीव तीव पाप के कारण श्रद्धानप्राचरण दोनों से भ्रष्ट है । धर्म में प्रेम रखने वाले जनों को चाहिए कि वे उन्हें फिर से उसी व्रतादि में स्थित करें। यह सम्यग्दर्शन का स्थितीकरण अंग है । विशेषार्थ-जो धर्मात्मा अविरतसम्यग्दृष्टि अथवा व्रती चारित्रधारी किसी भी अन्तरंगमोह कषाय-अज्ञान प्रमादबश अथवा बाह्य मिथ्योपदेश कुसंगति, रोग, वेदना दरिद्रता के कारण अथवा मिथ्याष्टियों के मंत्र-तंत्र आदि चमत्कार को देखकर सत्यार्थ श्रद्धान और आचरण से चलायमान हो जाय तो उसको धर्म से डिगते हुए देखकर पुनः प्रवीण पुरुष सत्यार्थ धर्म का स्वरूप बतलाकर धर्म में स्थिर करें। जिस प्रकार गाय अपने बछड़े पर असाधारण स्नेह रखती है और तो क्या वह उसके लिए अपने प्राणों की भी परवाह न कर सिंह का भी सामना करने को उद्यत हो जाती है उसी प्रकार धर्म में जो स्नेहपूर्ण भाव रखने वाले हैं, उनको धर्म वत्सल कहते हैं । धर्म में अनुराग होना, मनुष्यभव पाकर उत्तम कुल इन्द्रियों को शक्ति धर्म का लाभ, ये सभी बहुत ही दुर्लभता से प्राप्त हुए हैं, यदि ये मिलकर भी ऐसे ही छूट गये, इनसे लाभ नहीं उठाया तो इनका अनन्तकाल में भी पुनः प्राप्त होना कठिन है इसलिये कर्म के उदय से उदित हुए रोग, वियोग, दरिद्रता आदि दुःख प्राप्त हो जाने पर भी कायर होकर आर्त परिणाम नहीं करने चाहिए। क्योंकि दुःख करके, आर्तपरिणाम करके हम दुःखों से परिमुक्त कभी नहीं हो सकते, प्रत्युत् ऐसा करने से कर्मों का और अधिक बन्ध होगा । कायरता धारण करने से हम कर्मों से नहीं छूट सकते । तथा कोरी धीरता धारण करने पर भी फर्मों से छुटकारा नहीं मिलेगा, इसलिये दुर्गति की निशानी कायरता नहीं करनी चाहिए, समभावपूर्वक साहस धारण करना चाहिए तभी मनुष्य जन्म प्राप्त करना सार्थक है । ___ स्थितीकरण अंग को धारण करने वाले सम्यग्दृष्टि को सदा ही इस बात की तरफ दृष्टि रखनी चाहिए कि साधु संघ की वृद्धि हो, स्थिति हो, धर्मात्मा के गुणों का
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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