________________
रत्नकरण्ड थावकाचार
[ ३९ स्वभावतो निर्मलस्य । कथंभूतां? 'बालाशक्तजनाश्रयां' बालोऽज्ञ: अशक्तो व्रताद्यनुष्ठानेसमर्थः स चासो जनश्च स आश्रयो यस्याः । अयमर्थ:-हिताहितविवेकविकलं व्रताद्यनुष्ठानेऽसमर्थजनमाश्रित्यागतस्य रत्नत्रये तद्वति वा दोषस्य यत् प्रच्छादनं तदुपग हनमिति ।। १५ ।।
इसके आगे सम्यग्दर्शन के उपगू हन गण का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं
(म, स्वभाव से ( शुशल्य निर्मामार्गस्य ) रत्नत्रयरूप मार्ग की ( बालाशक्तजनाश्रयाम् ) अज्ञानी तथा असमर्थ मनुष्यों के आश्रय से होने वाली (वाच्यता) निन्दा को (यत्) जो (प्रमार्जन्ति) प्रमाणित करते हैं-दूर करते हैं (तत्) उनके उस प्रमार्जन को (उपग हनम् ) उपग हन गण (वदन्ति) कहते हैं ।
टोकार्थ-रत्नत्रयरूप मोक्ष का मार्ग स्वभाव से ही निर्मल-पवित्र है । परन्तु कदाचित् अज्ञानी अथवा व्रताचरण करने में असमर्थ मनुष्यों के द्वारा यदि कोई दोष उत्पन्न होता है या अपवाद होता है तो सम्यग्दृष्टि उसका निराकरण करते हैं, उसके दोषों को छिपाते हैं प्रकट नहीं करते । उनके इस प्रकार के व्यवहार को उपग हुन अंग कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जो हित और अहित के बिवेक से रहित है ऐसे अज्ञानी जीव को बाल कहते हैं, तथा बाल्यावस्था, वृद्धावस्था या हणतावश निर्दोष व्रत-अनुष्ठानादि के परिपालन में असमर्थ है उसे अशक्त कहते हैं, ऐसे बाल और अशक्त मनुष्यों के आश्रय से रत्नत्रय और उसके धारक पुरुषों में उत्पन्न दोषों का प्रच्छादन करना सम्यग्दृष्टि का परम कर्तव्य है ।
विशेषार्थ-जिनेन्द्र देव का कहा हुआ रत्नत्रयी मोक्षमार्ग अनादिनिधन है, जगत् के जीवों का उपकार करने वाला है और निर्दोष है । इस निर्दोष मार्ग का आश्रय लेने वाले के अन्तरंग में मोह-कपाय या अनुत्साह आदि कारण से और बहिरंग में शारीरिक दुर्बलता अयोग्य संगति आदि कायरतावश तथा मानसिक दुर्बलता आदि कारण से कोई दोष लगता है तो उन कारणों को दृष्टि में न लेकर स्वीकार न करके उस प्रशस्त मार्ग को ही निरर्थक, दोष युक्त, हानिकारक बताने की चेष्टा किया करते हैं कि इस जैनधर्म में जितने ज्ञानी तपस्वी त्यागी हैं, वे पाखण्डी हैं, कुमार्गी हैं, इस प्रकार मिथ्यादृष्टि लोग धर्म और धर्मात्माओं की निन्दा करते हैं । धर्मात्मा पुरुषों को चाहिए कि किसी धर्मात्मा के कोई दोष लग जाय तो धर्म से प्रेम रखते हुए उसके