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रत्नकरण्ड श्रावकाचार ऐसे कुमार्ग में अथवा कुमार्ग में स्थित मिथ्यादर्शनादि के आधारभूत जीव के विषय में मन से ऐसी सम्मति नहीं करना कि 'यह कल्याण का मार्ग है । तथा शरीर से नखों से चुटकी बजाकर अंगुलियाँ चलाकर अथवा मस्तक हिलाकर उसकी प्रशंसा नहीं करना, तथा वचन से भी उसका संस्तवन नहीं करना, इस प्रकार मन-वचन-काय के द्वारा मिथ्यादर्शनादि की और उसके धारण करने वाले की प्रशंसा नहीं करना सम्यग्दर्शन का अमूढदृष्टि गुण है।
विशेषार्थ-युक्ति-आगम से विरुद्ध अहितकर उपाय का नाम कापथ है । ऐसे कुमार्ग पर जो विश्वास रखते हैं उसे सत्य हितकर मानते हैं, उनके अनुसार क्रिया करते हैं तथा उस कुमार्ग का प्रचार-प्रसार करते हैं, वे सब कापथस्थ कहलाते हैं । मिथ्या मान्यताओं के ३६३ भेद आगम में बतलाये हैं, जो भावरूप से अनादि हैं। द्रव्यरूप से इनका बाह्य प्रचार इस हुण्डावसपिणी काल के निमित्त से अभी इस भरत क्षेत्र में पाया जाता है। जो रागीद्वषी देवों की पूजन-प्रभावना करते हैं, उनकी प्रशंसा करते हैं, पंचाग्नि तप करने वालों, बाघाम्बर ओढ़ने वालों, भस्म रमाने वालों, अनेक प्रकार के रक्ताम्बर, पीताम्बर, श्वेताम्बर धारण करने वालों के मार्ग की प्रशंसा करते हैं उनकी पूजा-उपासना करते हैं-करवाते हैं तथा इन देवताओं को रिश्वत देकर मांग करते हैं कि 'मेरा अमुक कार्य सिद्ध हो जाय तो तेरे छत्र चढ़ाऊँगा, मन्दिर बनवाऊँगा, बलि चढ़ाऊँगा, सवामण का चूरमा चढ़ाऊँगा, पकवान आदि चढ़ाऊँगा' और भी विभिन्न प्रकार की बोलारी बोलने वाले तथा देवताओं के निमित्त अथवा गुणों के निमित्त बलि या यज्ञ में निरपराध मूक पशु आदि जीवों की हिंसा करके धर्म मानने वाले सभी मिथ्यात्वी जीव घोर संसाररूपी समुद्र में डूब जाते हैं।
इस प्रकार कापथ और कापथस्थों में मोहित नहीं होना और उनमें राग न करना हो अमूढदृष्टि अंग है।
अथोपगृहनगुणं तस्य प्रतिपादयन्नाह-- स्वयं शुद्धस्य मार्गस्थ बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगृहनम् ॥१५॥
तदुपग हुनं वदन्ति यत्प्रमार्जन्तिः निराकुर्वन्ति प्रच्छादयन्तीत्यर्थः । कां ? 'वाच्यतां दोघ' । कस्य ? 'मार्गस्य' रत्नत्रयलक्षणस्य । किं विशिष्टस्य ? 'स्वयं शुद्धस्य'