SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३२ ] खोज की जाय वह सन्मार्ग कहलाता है, इस तरह सन्मार्ग का अर्थ आप्त-आगम और गुरु परम्परा का प्रबाह है एवं सम्यान, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है। उस सन्मार्ग के विषय में आप्त, आगम तपस्वी अथवा जीवादि पदार्थों का स्वरूप यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है, अन्य प्रकार भी नहीं है ऐसी जो निश्चल-अकम्प प्रतीति है, श्रद्धा है, वह सम्यग्दर्शन का निःशंकितत्व अंग कहलाता है । उक्त लक्षण से अन्य परवादियों के द्वारा कल्पित लक्षण सम्यक नहीं है क्योंकि अन्य वादियों के द्वारा माने गये आप्तआगम गुरु में समीचीन लक्षण नहीं पाये जाते हैं ।। विशेषार्थ-संसार में गदा, त्रिशूल, चक्रादि आयुध और स्त्रियों में अति आसक्त क्रोधी-मानी-मायाचारी, लोभादि कषायों से युक्त ऐसे अनेक प्रकार के देव कहलाते हैं। और हिंसा तथा काम, क्रोधादि में धर्म की प्ररूपणा करने वाले ऐसे शास्त्र भी आगम कहे जाते हैं । अनेक प्रकार के पाखण्ड रचने वाले विषय-कषायों से युक्त ऐसे अभिमानी गुरु कहलाते हैं। किन्तु वास्तव में ये आप्त-आगम गुरु नहीं हैं; इस प्रकार का जिसको दृढ़ श्रद्धान है और जो अज्ञानी पाखण्डी लोगों की असत्य युक्तियों से कदापि चलायमान नहीं होता है तथा खोटे देवों के द्वारा अनेक प्रकार से उपद्रव करने पर भी जिसके परिणामों में विकृति नहीं आती है, खड्ग के जल के समान निश्चल परिणामी सत्यार्थ देव-शास्त्र गुरु और तत्त्वों के स्वरूप में मिथ्याष्टि के वचनरूप पवन से जो कभी भी संशयादि को प्राप्त नहीं होते, वे निःशंकित गुण वाले कहलाते हैं। तत्त्व और सन्मार्ग के विषय में जव इतनी अकम्प और नि.सन्देह श्रद्धा हुआ करती है तब अवश्य ही उसके उसी प्रकार की निर्मलता रहना स्वाभाविक है । अतएव अकम्पता का अर्थ निर्भयता भी है । और इसीलिए सम्यग्दर्शन की निःशंकता का अर्थ भय और चलायमानता संदिग्ध प्रतीति इनसे रहित है । आगम में भय सात माने गये हैं-'मेरे इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग न हो जाय अथवा ऐश्वर्य सम्पत्ति वैभवादि सदा रहेंगे कि नहीं, कहीं मैं दरिद्री न हो जाऊँ' इत्यादि चिन्ताएँ जो हृदय को दग्ध करती रहती हैं इसको 'इसलोकभय' कहते हैं। आगे होने वाली सांसारिक पर्याय का नाम परलोक है उसके विषय में चिन्ता करना कि मेरा स्वर्ग में जन्म हो तो अच्छा, कहीं दुर्गति में जन्म न हो जाय इस प्रकार भी आकुलता से भयभीत होना 'परलोकभय' है। वात पित्त कफ की विषमता अथवा धातु-उपधातु की कमी या अधिकता से शरीर में
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy