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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ ३१ परिशुद्ध किया जाता है, इस कारण मन, इंद्रिय और शरीर का सम्यक् निरोध करना चाहिए । इस प्रकार पूर्वार्ध के तीन विशेषण और उत्तरार्ध में कही गई तीन बातें ज्ञानध्यान-तप के लिए साधन हैं और ये साध्य हैं, क्योंकि संन्यासपने को सफलता ज्ञानध्यान-तप पर ही निर्भर है ।
इदानीमुक्तलक्षणदेवागमगुरुविषयस्य सम्यग्दर्शनस्य निःशंकितत्वगुणस्वरूपं प्ररूपयन्नाह
इदमेवेदशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा ।
इत्यकम्पाय साम्भोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ॥११॥
'रुचिः' सम्यग्दर्शनं । 'असंज्ञया' निशंकितत्व धर्मोपेता। किविशिष्टा सती ? 'अकम्पा' निश्चला। किंवत् ? 'आयसाम्भोवत्' अयसि भवमायसं तच्च तदम्भश्च पानीयं तदिव तद्वत् खङ्गादिगत पानीयवदित्यर्थः क्व साकम्पेव्याह-'सन्मार्गे' संसारसमुद्रोत्तरणार्थ सदिभम ग्यते अन्वेष्यत इति सन्मार्ग आप्तांगमगुरुप्रवाहस्तस्मिन् केनोल्लेखेनेत्याह-'इदमेवाप्तागमतपस्विलक्षणं तत्त्वं' । 'ईदृशमेव' उक्तप्रकारेणैव लक्षणेन लक्षितं । 'नान्यत् एतस्माद्भिन्नं न । 'न चान्यथा' उक्ततल्लक्षणादन्यथा परपरिकल्पितलक्षणेन लक्षितं, 'न च' नैव तद्घटते इत्येवमुल्लेखेन ॥११।।
___ अब सम्यग्दर्शन के निःशंकितत्व नामक गुण का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं
इदमेवेति- (तत्त्वं) आप्त, आगम और तपस्वी रूप तत्त्व अथवा जीवाजीवादि तत्व (इदमेव) यही है (ईदशमेव) ऐसा ही है (अन्यत्) (न) अन्य नहीं है (इति) इस तरह (सन्मार्गे) समीचीन मोक्षमार्ग के विषय में (आयसाम्भोवत्) लोहे के पानी के समान (अकम्पा) निश्चल (रुचि:) श्रद्धा (असंशया) निःशंकितत्त्व गुण (अस्ति ) है ॥११॥
टोकार्थ--रुचि का अर्थ सम्यग्दर्शन अथवा श्रद्धा है। श्रद्धा, रुचि, स्पर्श, प्रतीति ये सब सम्यग्दर्शन के नामान्तर हैं। जिस प्रकार तलवार आदि पर चढ़ाया गया लोहे का पानी-धार निश्चल-अकम्प होती है उसी प्रकार सन्मार्ग में 'संसारसमुद्रोसरणार्थ-सद्धिग्यते-प्रविष्यते इति सन्मार्गः प्राप्तागम गुरु प्रवाहः तस्मिन' इस घ्युत्पत्ति के अनुसार संसाररूप समुद्र से पार होने के लिए सत्पुरुषों के द्वारा जिसकी