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________________ ३० ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार टोकार्थ-जिनके स्पर्शनादि पंचेन्द्रिय के विषयभूत माला तथा स्त्री आदि विषयों की आकांक्षा सम्बन्धी आधीनता नष्ट हो गई है अर्थात् जो पूर्णरूपेण इन्द्रियविजयी हैं। तथा जिन्होंने खेती आदि व्यापार का परित्याग कर दिया है और जो बाह्य और आभ्यन्त र परिग्रह से रहित हैं, तथा ज्ञान ध्यान और तप ही जिनके श्रेष्ठ रत्न हैं, उन्हीं में जो सदैव लीन रहते हैं वे तपस्वी-गुरु प्रशंसनीय होते हैं । विशेषार्थ-तपस्वी का स्वरूप बतलाकर जैनागम का प्रतिपाद्य विषय श्रेयोमार्ग का शक्यानुष्ठान और इष्टफल की प्रकटता को बताना इस कारिका का प्रयोजन है। अत: जो तपस्वी का लक्षण बतलाया है वह जैनागम का एक मुर्तिमान सार है। क्योंकि जैनागम की सफलता तपस्विता पर ही निर्भर है। संसारी प्राणी पंचेन्द्रिय के विषयों की आशा से अनुवासित है, आधीन है। इस कारण से उसे संसार के समस्त दुःखों को उठाते हुए भवभ्रमण करना पड़ता है, परन्तु जिन्होंने इन्द्रियों को अपने आधीन कर लिया है, जो विषय भोगों से विरक्त हो गये हैं वे आत्माराधक वन्दन करने योग्य हैं क्योंकि विषयासक्ति ही आरम्भ-परिपद में अनरक्त करती है. और अनेक प्रकार से स-स्थावर जोवों का घात कराकर पाप का संचय कराती है। इसलिए जो विषयों की आशा के वश हैं, वे गुरु कैसे हो सकते हैं ? दूसरी बात यह है कि जो विषयों की आशा के वशवर्ती हैं वे उन विषयों का संग्रह करने के लिए अनेक तरह के आरम्भादि कार्यो में रत होते हैं अर्थात् व्यापार करते हैं, और उस कार्य में सावद्य-पापाचार होना अवश्यम्भावी है । तथा द्रव्यहिंसा, भावहिंसा, झूठ चोरी आदि पाप होते ही हैं, किन्तु जो विषयों की आशा छोड़ चुका है वह पाप कर्म क्यों करेगा? ज्ञान, ध्यान, तपोरक्त साधु ही वास्तव में कर्म समूह की निर्जरा करता है । ज्ञान से अभिप्राय निरन्तर श्रु त का अभ्यास करते रहने से है क्योंकि मोक्षमार्गी को उसी से उपयोगी तत्त्व प्राप्त हो सकता है । ज्ञान की स्थिर अवस्था का नाम ध्यान है। कोई भी ज्ञान यदि अन्तर्मुहूर्त तक अपने विषय पर स्थिर रहता है तो उसे ध्यान कहते हैं ! ध्यान के चार भेद हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान इनमें धHध्यान और शुक्लध्यान ही उपादेय एवं मोक्ष के हेतु हैं। कर्मों की निर्जरा के लिए मन का इन्द्रियों का और शरीर का भले प्रकार निरोध करना तप है। जिस प्रकार अग्नि के संयोग से स्वर्णपाषाण को विधिपूर्वक शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार अनेक प्रकार के तपश्चरणादि प्रयोगों के द्वारा आत्मा के अनादि कर्म कलंक को दूर कर उसे
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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