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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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संसार के प्राणी स्वभाव से ही आप्त के वचनरूप आगम का उल्लंघन करते आ रहे हैं, इसी कारण से वे दुःखी हैं । जो आगम के बाक्यों के अनुकूल अपनी प्रवृत्ति को बनाता है, आगम का उल्लंघन नहीं करता वह अभ्युदय और निःश्रेयस् का पात्र बनता है । तथा ऐसे प्रागम के इष्ट विषय का कोई भी विरोध नहीं कर सकता, अथवा यह आगम इन्द्रियगोचर तथा इष्ट अभिलषित एवं अनुमेय विषयों का विरोध नहीं करता । इस प्रकार दृष्ट और इष्ट विषय का आगम विरोध नहीं करता। फिर भी आगम का वास्तव में मुख्य विषय क्या है ? इसके लिये दो भेदरूप से प्रतिपादन किया-अभ्युदय अर्थात् स्वर्गादि सम्पदा की प्राप्ति और दूसरा निःश्रेयस् अर्थात् मोक्ष सुख का प्राप्त होना।
ऐसा यह आगम सबका हितकारक चतुर्गति के दुःखरूप खोटे मार्ग का निराकरण करने वाला, वास्तविक तत्त्वों का निरूपण करने वाला तथा प्राणीमात्र का हितकारक होता है ।।६।।
अथेदानी श्रद्धानगोचरस्य तपोभूतः स्वरूपं प्ररूपयन्नाह
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञानध्यानतपोरत्नस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥
विषयेषु सम्वनितादिष्वाशा आकांक्षा तस्या वशमधीनता । तदतीतो विषयाकांक्षारहितः । 'निरारम्भः' परित्यक्तकृष्यादिव्यापारः । 'अपरिग्रहो' बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः । 'ज्ञानध्यानतपोरत्न' ज्ञानध्यान तपांस्येव रत्नानि यस्य एतद्गुणविशिष्टो यः स तपस्वी गुरु: 'प्रशस्यते' श्लाघ्यते ।।१०।।
अब इसके पश्चात् सम्यग्दर्शन के विषयभूत तपोभृतगुरु का लक्षण कहते हैं
विषयाशेति- (यः) जो (विषयाशावशातीतो) विषयों की आशा के वश से रहित हो, (निरारम्भः ) आरम्भरहित हो ( अपरिग्रहः ) परिग्रह रहित हो और ( ज्ञानध्यानतपोरत्नः ) ज्ञान, ध्यान तथा तपरूपी रत्नों से सहित हो ( स: ) वह (तपस्वी) गुरु (प्रशस्यते) प्रशंसनीय है ।
* 'ज्ञानध्यानतपोरक्तः' भी प्रचलित है।