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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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वेदना होती है परन्तु इसके होने के पहले ही मोहोदयवश चित्त में व्याकुलता का होना कि मैं सदा नीरोग रहूँ मुझे कभी कोई वेदना न हो इस प्रकार निरन्तर चिन्तित रहना 'वेदनाभय' है । वर्तमान पर्याय के नाश होने के पहले ही उसके नाश की शंका से और उसको सुरक्षित न रख सकने की भावनावश बौद्धों के क्षणिकवाद की तरह सदा आत्म नाश की शंका बनी रहना 'अश्राणभय' है । मिध्यात्व के उदय से जो सत् का नाश या असत् की उत्पत्ति की बुद्धि या मान्यतारूप एकान्तिक भावना रहा करती है इन विचार धाराओं से सदा अपने को अरक्षित मानना और व्याकुल बने रहना इसको 'प्रगुप्तिभय' कहते हैं ।
चार प्रकार के प्राणों का त्रियोग होने को मरण कहते हैं, ये प्राण निश्चित अवधि तक ही रहते हैं इसके पश्चात् इनका वियोग हो जाता है परन्तु अज्ञानी जीव इसके वियोग से डरता है, सका जीना चाहता है करण से डरता है वह 'मरणभय' है । वज्रपात, भूकम्प, समुद्रादि में डूबने, अग्नि में जलने और भी आकस्मिक दुर्घटनाओं का विचार करके कि कहीं मेरा इस प्रकार से मरण न हो जाय ऐसी चिन्ता से भयातुर बने रहना 'प्राकस्मिक भय' है । इन सातों भयों का सम्बन्ध अश्रद्धा, अज्ञान एवं अनन्तानुबन्धी कषायों के कारण बना रहता है किन्तु सम्यग्दृष्टि इन भयों से अतिकान्त है । ११ ॥
इदानी निष्कांक्षितत्वगुणं सम्यग्दर्शने दर्शयन्नाह -
कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये ।
पापबीजे सुखेनास्था श्रद्धानाकाङ, क्षरणा स्मृता ॥१२॥
'अनाकांक्षणा स्मृता' निष्कांक्षितत्वं निश्चितं । कासौ ? 'श्रद्धा' । कथंभूता ? 'अनास्था' न विद्यते आस्था शाश्वतबुद्धिर्यस्यां । अथवा न आस्था अनास्था । तस्यां तवा वा श्रद्धा अनास्थाश्रद्धा सा चाप्यवाकांक्षणेति स्मृता । क्व अनास्थाऽरुचिः ? 'सुखे ' वैषयिके । कथंभूते ? 'कर्मपरवशे' कर्मायत्त' । तथा 'सान्ते' अन्तेन विनाशेन सह वर्तमाने तथा 'दुःखंरन्तरितोदये' दुःखैर्मानसशारीरैरन्तरित उदयः प्रादुर्भावो यस्य । तथा 'पापबीजे' पापोत्पत्तिकारणे ।।१२ ।
सम्यग्दर्शन के निःकांक्षितत्व गुण को दिखलाते हैं-
कर्मपरवशे कर्मों के अधीन (सान्ते ) अन्त से सहित ( दुःखेः अन्तरितोदये) दुःखों से मिश्रित अथवा बाधित और (पापबीजे) पाप के कारण ( सुखे ) विषयसम्बन्धी