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रत्नकरण्ड श्रावकाचार प्रकार मृदंग परोपकार के लिए अनेक प्रकार के शब्द करता है, उसी प्रकार आप्त भगवान भी परोपकार के लिए ही दिव्य ध्वनि के माध्यम से उपदेश देते हैं।
विशेषार्थ-यहां पर यह बतलाना अत्यन्त आवश्यक है कि आप्त निर्दोषनिर्मोह होकर भी श्रेयोमार्ग के उपदेश के कार्य में क्यों और किस तरह प्रवृत्त हुआ करते हैं ? यद्यपि प्रयोजन अनेक तरह के हुआ करते हैं फिर भी उनको दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक स्वार्थ और दूसरा परार्थ । इनमें से कोई प्रयोजन तो उपदेश देने का आप्त को होना ही चाहिए। अन्यथा जिस तरह सृष्टि रचना, वक्तृत्व के सम्बन्ध को लेकर ईश्वर के विषय में यह आक्षेप उत्पन्न होता है कि बिना प्रयोजन कृतकृत्य ईश्वर सृष्टि रचना के कार्य में क्यों प्रवृत्त होगा? उसी तरह क्या कारण है कि प्रकृत में भी आक्षेप उपस्थित नहीं हो सकता ?
अरहन्त भगवान वीतराग होने के कारण परोपकार को सराग भावनारूप दया से रहित हैं । उनकी दिव्यध्वनि में कारण है भव्य श्रोताओं के भाग्य के निमित्त की विवशता और उनकी तीर्थंकर-प्रकृति का उदय । किसी भी तरह की इच्छा के बिना ही उनके वचनयोग की प्रवृत्ति होती है। अतएव वे उपदेश करते हैं, इसलिए आचार्य ने कारिका के उत्तरार्ध में मृदंग का उदाहरण देते हुए मृदंग बजाने वाले के हाथ के स्पर्श का निमित्त और उससे होने वाली जड़ मृदंग की ध्वनि का अर्थान्तरन्यास के द्वारा उल्लेख कर दिया है।
संसारी प्राणी अधिकतर जितना भी कार्य करते हैं वे लोभ, लालच या प्रशंसादिवश करते हैं। यहां तक कि प्रयोजन बिना कोई भी कार्य करना बुद्धिमत्ता का सूचक नहीं माना गया है, इसलिए यह कहावत भी है कि-'प्रयोजनमन्तरेण मन्दोऽपि न प्रवर्तते' परन्तु अरहन्त भगवान अपने प्रयोजन के बिना, 'इच्छा विना जगत् के प्राणि मात्र के लिए हितकर शिक्षा देते हैं । जिस प्रकार मेघ स्वप्रयोजन के बिना ही प्राणियों के पुण्य के उदय से जल वृष्टि करता है। उसी प्रकार आप्त भी भव्यजन के पुण्य के निमित्त से धर्म क्षेत्रों में विहार करते हुए धर्म से अनभिज्ञ जनों के लिए धर्मामत की वर्षा करते हैं। इस प्रकार सत्पुरुषों का प्रयत्न परके उपकार के लिए होता है।
राग और निज प्रयोजन की इच्छा मोहकर्म के उदय से होती है। मोहकर्म का क्षय दश गुणस्थान में हो जाता है और दिव्यध्वनि तेरहवें गुणस्थान में