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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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खिरती है इसलिये दिव्य ध्वनि में राग और निजप्रयोजन की कुछ भी अपेक्षा नहीं रहती है ।
कीदृशंतच्छास्त्रं यत्त ेन प्रणीतमित्याह
आप्तोपज्ञमनुल्लंध्यम दृष्टेष्ट विरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम् ||१||
'आसोनं' सर्वतए प्रथमोति । अनुल्लंघ्यं यस्मात्तदाप्तोपज्ञं तस्मादिन्द्रादीनामनुल्लंघ्यमादेयं । कस्मात् ? तदुपज्ञत्वेन तेषामनुल्लंघ्यं यतः । 'अदृष्टेष्ट विरोधकं' दृष्टं प्रत्यक्षं, इष्टमनुमानादि, न विद्यते दृष्टेष्टाभ्यां विरोधो यस्य । तथाविधमपि कुतस्तत्सिद्धमित्याह - 'तत्त्वोपदेशकृत्' यतस्तत्त्वस्य च सप्तविधस्य जीवादिवस्तुनो यथावस्थित स्वरूपस्य वा उपदेशकृत् यथावत्प्रतिदेशकं ततो दृष्टेष्टविरोधकं । एवंविधमपि कस्मादवगतं ? यतः 'सार्व' सर्वेभ्यो हितं सार्वमुच्यते तत्कथं यथावत्तत्स्वरूपप्ररूपणमन्तरेण घटते । एतदप्यस्य कुतो निश्चितमित्याह - 'कापथघट्टन' यतः कापथस्य कुत्सितमार्गस्य मिथ्यादर्शनादेर्घट्टनं निराकारकं सर्वज्ञप्रणीतं शास्त्रं ततस्तत्सार्वमिति ॥ ॥
वह शास्त्र कैसा होता है जिसकी रचना आप्त भगवान के द्वारा हुई है, यह बतलाते हुए शास्त्र का लक्षण कहते हैं---
प्राप्लोपज्ञमिति - (तत्) वह (शास्त्र) शास्त्र ( आप्तोपनं ) सर्व प्रथम आप्त भगवान के द्वारा कहा हुआ है (अनुल्लंघ्यम् ) इन्द्रादिक देवों के द्वारा ग्रहण करने योग्य है अथवा अन्य वादियों के द्वारा जो अखण्डनीय है ( अदृष्टेष्टविरोधकम् ) प्रत्यक्ष तथा अनुमानादि के विरोध से रहित है ( तत्त्वोपदेशकृत् ) तत्वों का उपदेश करने वाला है। ( सार्वम् ) सबका हितकारी है और ( काप घट्टनम् ) मिथ्यामार्ग का निराकरण करने वाला है ।
टोकार्थं - 'आप्तोपज्ञ' वह शास्त्र सर्व प्रथम आप्त के द्वारा जाना गया है एवं अप्त के द्वारा ही कहा गया है इसलिये इन्द्रादिक देव उसका उल्लंघन नहीं करते किन्तु श्रद्धा से उसे ग्रहण करते हैं । कुछ प्रतियों में 'तस्मादितरवादिनामनुल्लंघ्य' यह पाठ भी है । इसके अनुसार अन्य वादियों के द्वारा उल्लंघन करने योग्य नहीं है । 'अदृष्टेण्ट विरोधकम्' इष्ट का अर्थ प्रत्यक्ष तथा अदृष्ट का अर्थ अनुमानादि परोक्ष