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रत्नकरण्ड श्रावकाचार अनात्मार्थं विना रागः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते ॥ ८ ॥
'शास्ता' आप्तः । 'शास्ति' शिक्षयति । कान् ? 'सतः' अविपर्ययस्तादित्वेन समीचीनान भव्यान् । कि शास्ति ? 'हितं' स्वर्गादितत्साधनं च सम्यग्दर्शनादिकम् । किमात्मान: किचित् फलमभिलषम्नसौ शास्तीत्याह—'अनात्मार्थ' न विद्यते आत्मनोऽर्थः प्रयोजनं यस्मिन् शासनकर्मणि परोपकरार्थमेवासी तान् शास्ति। 'परोपकाराय सतांहि चेष्टितम्' इत्यभिधानात् । स तथा शास्तीत्येतत् कुतोऽवगतमित्याह 'विनाराम:' यतो लाभ पूजा ख्यात्यभिलाषलक्षणपरैरागैबिना शास्ति ततोऽनात्मा) शास्तीत्यवसीयते । अस्यैवार्थस्य समर्थनार्थमाह-ध्वनन्नित्यादि । शिल्पिकरस्पद्विादककराभिघातान्मुरजो मदतीध्वनन् किमात्मार्थ किंचिदपेक्षते ? नवापेक्षते । अयमर्थ:--यथा मुरजः परोपकारार्थमेव विचित्रान् शब्दान् करोति तथा सर्वज्ञः शास्त्रप्रणयनमिति ।।८।।
सम्यग्दर्शन के विषयभूत आप्त का स्वरूप कहकर अब उसके विषयभूत आगम का स्वरूप कहने के लिए श्लोक कहते हैं
अनात्मार्थमिति-( शास्ता ) आप्त भगवान ( रागैविनर ) राग के बिना ( अनात्मार्थ ) अपना प्रयोजन न होने पर भी ( सतः ) समीचीन-भव्य जीवों को (हितं शास्ति) हित का उपदेश देते हैं क्योंकि ( शिल्पिकर स्पर्शात् ) बजाने वाले के हाथ के स्पर्श से (ध्वनन्) शब्द करता हुआ ( मुरज: ) मृदंग ( किम्अपेक्षते ) क्या अपेक्षा रखता है ? कुछ भी नहीं ।
टीकार्थ-अरहन्त भगवान विपर्ययादि दोषों से रहित श्रेष्ठ भव्य जीवों को दिव्यध्वनि के द्वारा स्वर्गादिक तथा उनके साधनरूप सम्यग्दर्शनादिक का उपदेश देते हैं किन्तु वे अपने लिए किचित् भी फलाभिलाषारूप राग नहीं रखते हैं तथा उस उपदेश में उनका स्वयं का भी कोई प्रयोजन नहीं रहता। मात्र परोपकार के लिए उनकी दिव्य वाणी की प्रवृत्ति होती है । कहा भी है-'परोपकाराय सतां हि चेष्टितम' अर्थात् सत् पुरुषों की चेष्टा परोपकार के लिए ही होती है। राग तथा निजी प्रयोजन के बिना आप्त कैसे उपदेश देते हैं ? इसका दृष्टान्त द्वारा समर्थन करते हुए कहते हैं कि जैसे--शिल्पी के हाथ के स्पर्श से बजने वाला, मनुष्य के हाथ की चोट से शब्द करता हुआ मृदंग क्या कुछ चाहता है ? कुछ नहीं चाहता। तात्पर्य यह है कि जिस