________________ 3 44 ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार यह जीव आत्मनिधि को भूलकर चतुर्गतिरूप संसार में भटकता हुआ अनन्तदुःख उठा रहा है / जिस प्रकार किसी व्यक्ति को अपने गुप्त गड़े हुए धन का भान न होने से वह एक भिखारी के समान दुःखी होता रहता है किन्तु धन का पता लगते ही वह अपने को सेठ समझने लगता है, तथा उसका दु:ख दारिद्रय समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार वास्तविकरूप से जीव को अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान-भान हो जाता है तो अज्ञान जनित सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार खेत की रक्षा के लिए बाड़ लगाई नाती है, उसी प्रकार अणुव्रतों की रक्षा के लिए तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत रूप सप्त शीलों की बाड़ लगाई जाती है। इन बारह व्रतों का परिपालन करने वाला देशव्रती कहलाता है। यह सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी जब देशवत से सहित होती है तब इस जीव को नरक तिर्यच गति के दुःखों से छुटकारा मिल जाता है। नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने कर्मकाण्ड गाथा 334 में कहा है-'अणुवदमहव्वदाई ण लहदि देवाउग भोत्तु' देवायु के बिना अन्य तीन आय का बन्ध होने पर जीव अणुवत, महाव्रत धारण नहीं कर सकता है / अर्थात् अणुव्रती देवायू का ही बन्ध करता है / इसलिए स्वर्ग सुखों को प्राप्त कर लेता है, पश्चात् वहां से आने पर उसे मनुष्यगति प्राप्त होती है / सम्यग्दृष्टि जीव जब तक मोक्ष नहीं जाता तब तक देव और मनुष्य इन दो गतियों में संचरण करता रहता है, नरक-तिर्यंचगति के दुःखों से उसकी सुरक्षा होती रहती है। और जब वही जीव महानतों का परिपालन करता है, अर्थात सकलसंयम का धारक हो जाता है तो उसके चारित्र में सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट करने का सामर्थ्य आ जाता है / समन्तभद्रस्वामी ने भी अपनी आत्मा को द्रव्यकर्म, भाबकर्म रहित निष्कलंक बनाने की भावना व्यक्त की है और यह अवस्था सम्यग्दर्शन सहित सम्यक्चारित्र के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। इस प्रकार सम्यग्दर्शनरूप लक्ष्मी में ही तीनों रत्न समाविष्ट हो सकते हैं // 26 / / 150 // इस प्रकार प्रभाचन्द्राचार्य द्वारा विरचित, समन्तभद्रस्वामी द्वारा विरचित उपासकाध्ययन की टीका में पञ्चम परिच्छेद सल्लेखना प्रतिमाधिकार पूर्ण हुआ / / 5 / / * समाप्त * .