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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ ३४३ पातिव्रत धर्म का पालन करने वाली माता पुत्र को रक्षित करती है । और (गुणभूषा) मूलगुणरूपी अलंकारों से युक्त होती हुई (मा) मुझे उस तरह ( संपुनीतात् ) पवित्र करे जिस प्रकार कि (गुणभूषाकन्यका कुलमिव) शीलसौन्दर्य आदि गुणों से युक्त कन्या कुल को पवित्र करती है। टीकार्थ-जिनपतिपदपद्मप्रेक्षिणी' इस शब्द में जो पद शब्द है उसके दो अर्थ हैं- एक सुबन्त, तिङन्तरूप पद , समूह, और द्वारा कमास । अह अर्थ इस प्रकार है-तीर्थंकरभगवन्त के शब्द रूप कमलों का श्रद्धान करने वाली, अथवा तीर्थकर भगवान के चरण कमलों का अवलोकन करने वाली अर्थात् उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा रखने वाली सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मुझे सुखी करे। जिस प्रकार विषयसुख की भूमि कामिनी कामीपुरुष को सुखी करती है, उसी प्रकार आत्मोत्थसुख की भूमि सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मुझे सुखी करे। जिस प्रकार शुद्धशीला-निर्दोष सदाचारिणी माता अपने निर्दोष पुत्र की रक्षा करती है, किन्तु दुराचारिणी माता नहीं । उसी प्रकार शुद्धशीला-निरतिचार गुणव्रत और शिक्षानत रूप सप्तशील से युक्त सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मेरी रक्षा करे । तथा जिस प्रकार गुणभूषा-शील, अलंकारों आदि से विभूषित कन्या अपने कुल को पवित्र एवं प्रशंसनीय बनाती है, उसी प्रकार गुणभूषा-अष्टांग आदि से युक्त सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मुझे अच्छी तरह पवित्र करे, मुझे कर्मकलंक से रहित करे ।। २६ ।। येनाज्ञानतमो इति--जिन्होंने भव्य जीवों के चित्त में स्थित समस्त अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट कर दिया है, तथा सम्यग्ज्ञानरूपी किरणों के द्वारा समस्त गहस्थ धर्मरूप मार्ग को प्रकट किया है, जो श्री रत्नत्रयरूप पिटारे को प्रकाशित करने के लिए सूर्य हैं पक्ष में भाव से कर्ता होने के कारण रत्नकरण्ड नामक ग्रन्थ को प्रकाशित करने के लिए सूर्य हैं । संसाररूपी नदी को सुखाने वाले हैं । समन्तभद्र-कल्याणों से परिपूर्ण मुनियों की रक्षा करने वाले हैं। पक्ष में इस ग्रन्थ के कर्ता समन्तभद्रस्वामी के रक्षक हैं 1 अनन्तचतुष्टयरूप श्री से सहित हैं तथा प्रभा-कान्ति से जो चन्द्रमा हैं ऐसे जिनेन्द्र देव जयवन्त रहें। विशेषार्थ-इस लोक में सम्पूर्णदर्शनरूपी लक्ष्मी से ही अपने आपको सुखी करने, रक्षित करने और पवित्र करने की प्रार्थना की गई है। क्योंकि सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी प्राप्त होने के पश्चात् ही समीचीन ज्ञान और देशव्रत और महानत का समारोप हो सकता है, जिसको देशचारित्र और सकलचारित्र कहा जाता है। अनादिकाल से
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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