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रत्नकरण्ड श्रावकाचार कुलमिव गुणभूषा कन्यका संपुनीता
ज्जिनपति पद पद्मप्रेक्षिणी वृष्टिलक्ष्मीः ॥२६॥
मां सुखयतु सुखिनं करोतु । कासो ? दृष्टिलक्ष्मीः सम्यग्दर्शनसम्पत्तीः । किविशिष्टेत्याह-जिनेत्यादि जिनानां देशतः कर्मोन्मूलकानां गणधरदेवादीनां पतयस्तीर्थंकरास्तेषां पदानि सुबन्ततिङन्तानि पदा वा तान्येव पद्मानि तानि प्रेक्षते श्रद्दधा. तोत्येवंशीला । अयमर्थः-लक्ष्मीः पद्मावलोकनशीला भवति, दृष्टिलक्ष्मीस्तु जिनोक्तपदपदार्थ प्रेक्षणशीलेति । कथंभूता सा ? सुखभूमिः । सुखोत्पत्तिस्थानं । केव के ? कामिनं कामिनीव यथा कामिनी कामभूमिः कामिनं सुखयति तथा मां दृष्टिलक्ष्मीः सुखयतु । तथा सा मां भुनक्तु रक्षतु । केव ? सुतमिव जननी । किविशिष्टा ? शुद्धशीला जननी हि शुद्धशीला सुतं रक्षति नाशुद्ध शीला दुश्चारिणी । दृष्टिलक्ष्मीस्तु गुणन्नत शिक्षाक्त लक्षणशुद्ध सप्तशोलसमन्विता मां भुनक्तु । तथा सा मां सम्पुनीतात सकलदोषकलंक निराकृत्य पवित्रयतु । किमिव ? कुलमिव गुणभूपा कन्यका । अयमर्थः कुलं यथा गुणभूषा गुणाऽलंकारोपेता कन्या पवित्रयति इलाध्यता नयति तथा दृष्टिलक्ष्मीरपि गुणभूषा अष्टमूल गुणरलंकृता मां सम्यक्पुनीतादिति ॥२६॥
येनाज्ञानतमो विनाश्य निखिलं भव्यात्मचेतोगतम्, सम्यग्ज्ञानमहांशुभिः प्रकटितः सागारमार्गोऽखिलः । सश्रीरत्नकरण्डकामलरविः संसृत्सरिच्छोषको,
जीयादेष समन्तभद्रमुनियः श्रीमान् प्रभेन्दुजिनः ।।१।।
इति प्रभाचन्द्रविरचितायां समन्तभद्रस्वामी विरचितोपासकाध्ययनटीकायां पंचमः परिच्छेदः ।
समन्तभद्रस्वामी कहते हैं कि 'रत्नकरण्डक' ग्रन्थ की रचना करते हुए मेरी जो यह सम्यक्त्वरूप सम्पत्ति वृद्धि को प्राप्त हुई है वह, यही कार्य करे; यह कहते हैं
(जिनपतिपदपप्रक्षिणी) जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों का दर्शन करने वाली (दृष्टिलक्ष्मीः) सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी ( सुखभूमिः ) सुखकी भूमि होती हुई ( मां ) मुझे उस तरह ( सुखयतु ) सुखी करे जिस तरह कि ( सुखभूमिःकामिनी कामिनमिव) सुख की भूमि कामिनी कामी पुरुष को सुखी करती है। ( शुद्धशीला ) निर्दोष शील-तीन गुणन्नत और चार शिक्षानत से मुक्त होते हुए (मां) मुझे उस तरह ( भुनक्तु ) रक्षित करे जिस तरह कि ( शुद्धशीला जननी सुतमिव ) निर्दोष शील