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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार क्षेत्र-धान्य की उत्पत्ति का स्थान ऐसे डोहलिका आदि स्थानों को खेत कहते हैं। (जिस खेत में चारों ओर से बांध बाँधकर पानी रोक लेते हैं ऐसे धान्य के छोटे-छोटे खेतों को डोहलिका कहते हैं । ) वास्तु-मकान आदि । धन- सोना-चांदी आदि । धान्य-चावलादि । द्विपद-दारी. दास.दि । समुए- दि। बारपलंगादि और आसन-बिस्तर आदि । यान-पालकी आदि । कुप्य-रेशमी-सूती कोशादि के वस्त्र । भाण्ड-चन्दन, मजीठ, कांसा तथा तांबे आदि के बर्तन । यह दस प्रकार का परिग्रह है । इसका त्यागी परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी होता है। विशेषार्थ-परिग्रह में जो ममत्वभाव होता है उसके त्यागपूर्वक परिग्रह के त्याग को परिग्रहविरत कहते हैं । 'ये मेरे नहीं हैं और न मैं इनका हूँ' इसका मतलब है कि न मैं इनका स्वामी और भोक्ता हूं, और न ये मेरे स्वत्व और भोग्य हैं। इस संकल्पपूर्वक परिग्रह का त्याग किया जाता है। स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है कि दस प्रकार के बाह्यपरिग्रहों में ममत्वभाव को छोड़कर निर्ममत्वभाव में मग्न सन्तोषी श्रावक परिग्रहविरत है। चारित्रसार में कहा है कि परिग्रह क्रोधादि कषायों की, आर्त और रौद्रध्यान की, हिंसादि पांच पापों की, तथा भय की जन्मभूमि है यह धर्म और शुक्लध्यान को पास भी नहीं आने देता, ऐसा मानकर दस प्रकार के बाह्यपरिग्रह से निवृत्त सन्तोषी श्रावक परिग्रह त्यागी होता है। किन्तु प्राचार्य वसुनन्दी कहते हैं कि जो बस्त्र मात्र परिग्रह के अतिरिक्त शेष सब परिग्रह को छोड़ देता है, और वस्त्र में भी ममत्व नहीं करता वह नवम प्रतिमा का धारी श्रावक है । लाटी संहिता में कहा है जिसमें स्वर्ण आदि द्रव्य का सर्वथा त्याग माना गया है वह गहस्थ नवमी प्रतिमाबाला है। इसके पहले स्वर्ण आदि की संख्या घटायी मात्र थी, अब केवल अपने एक शरीर के लिए वस्त्र, मकान आदि स्वीकृत है । अथवा धर्म के साधन मात्र स्वीकार हैं। शेष सब छोड़ देता है। इससे पहले मकान, स्त्री आदि का स्वामी था, अब वह निशल्य होकर जीवन पर्यन्त के लिए सब प्रकार से छोड़ देता है। ग्रन्थकार ने 'सन्तोषपरः' विशेषण दिया है क्योंकि बाह्यपरिग्रह के त्याग का कारण सन्तोष है। जब तक सन्तोष नहीं होता तब तक त्याग नहीं हो सकता ।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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