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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ ३३३ बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः सन्तोषपरः परिचित्तपरिग्रहाद्विरतः ॥२४॥ परि समन्तात्, चित्तस्थः परिग्रहो हि परिचित्त परिग्रहस्तस्माद्विरतः श्रावको भवति । किं विशिष्ट : सन ? स्वस्थो मायादिरहितः । तथा सन्तोषपरः परिग्रहाकांक्षाव्यावृत्त्या सन्तुष्ट: तथा। निर्ममत्वरतः । किं कृत्वा ? उत्सज्य परित्यज्य । किं तत् ? ममत्वं मू । क्व? बाह्यषु दशसु वस्तुषु । एतदेव दशधा परिगणनं बाह्यवस्तूनां दर्यते । क्षेत्र वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । शयनासने च यानं कुप्यं भाण्डमिति दश ।। क्षेत्र सस्याधि करणं च डोहलिकादि । वास्तु गृहादि । धनं सुवर्णादि । धान्य ब्रीह्यादि । द्विपदं दासीदासादि । चतुष्पदं गवादि । शयनं खट्वादि । आसनं विष्टरादि । यानं डोलिकादि । कुप्यं क्षोमकापसिकौशेयकादि । भाण्डं श्रीखण्डमंजिष्टाकांस्यताम्रादि ।। २४ ।। अब श्रावक के परिग्रहत्याग गुणका वर्णन करते हुए कहते हैं । (दशसु) दश (बाह्य षु) बाह्य (वस्तुष) वस्तुओं में (ममत्वं) ममताभाव को ( उत्सृज्य ) छोड़कर ( निर्ममत्वरतः ) निर्ममत्वभाव में लीन होता हुआ जो ( स्वस्थः ) आत्मस्वरूप में स्थित तथा ( सन्तोषपरः ) सन्तोष में तत्पर रहता है ( सः ) बह ( परिचित्तपरिग्रहात् ) सब ओर से चित्त में स्थित परिग्रह से (विरतः) विरत होता है। टीकार्थ-'परिसमन्तात् चित्तस्थ: परिग्रहो हि परिचित्त परिग्रहः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो परिग्रह निरन्तर चित्त में स्थित रहता है ऐसा ममकाररूप परिग्रह परिचित्तपरिग्रह कहलाता है। ऐसे परिग्रह से विरत वही श्रावक हो सकता है जो स्वस्थ-मायाचारादि से रहित हो, तथा सन्तोष धारण में तत्पर हो, परिग्रह की आकांक्षा से निवृत्त हो, निर्ममत्व हो, अर्थात् जिसने दश प्रकार के बाह्यपरिग्रह के ममत्व का त्याग कर दिया है। अब दस प्रकार का बाह्यपरिग्रह बतलाते हैं
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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