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रत्नकरण्ड श्रावकाचार के कारण नहीं हैं । प्राणियों की पीड़ा को बचाकर करने से ही दान-पूजा सम्भव होती है। यदि व्यापार आदि में भी प्राणियों का घात नहीं होता तो उसका त्याग नहीं कराया जाता, किन्तु इन कार्यों में तो हिंसा है ही । अतः यहां धार्मिक कार्यों का निषेध नहीं है। आरम्भ का त्याग श्रावक मन-वचन-कायपूर्वक, कृत-कारित से करता है । अनुमोदना का त्याग नहीं करता, क्योंकि पुत्रादिकों को अनुमति से बचना कभी-कभी अशक्य हो जाता है।
स्वामी समन्तभद्र ने मन-वचन-काय या कृत-कारित का निर्देश नहीं किया है। जो हिंसा के कारण सेवा, खेती, व्यापार आदि आरम्भ का त्यागी है, वह आरम्भविरत है ऐसा कहा है।
धनोपार्जन करने के साधन व्यापारादि सम्बन्ध से जितने भी पापारम्भ होते हैं, उनका त्याग करे और स्त्री पुत्रादि तथा धनादि समस्त परिग्रह का विभाग करके अल्प धन स्वयं रखे । उसे अपने शरीर के साधन, भोजन-औषधि आदि में लगावे, अन्य सामियों के दुःख आदि के आने पर उनका भी धनादि देकर उपकार करे, यह दानपूजा का आरम्भ स्वयं कर सकता है। ऐसा टीका से विदित होता है । तब स्वयं भोजन बनाकर भी खा सकते हैं और पात्रदानादि भी कर सकते हैं।
स्वामी समन्तभद्राचार्य के 'सेवाकृषिवाणिज्य प्रमुखात्' और 'प्राणातिपात हेतोः' इन दो विशेषणों से पशु पालनादि, तथा व्यापार आदि को ग्रहण करने की विवक्षा है। क्योंकि ये कार्य हिंसा प्रधान हैं । इसलिये आरम्भ शब्द से व्यापार ही अभीष्ट है सूनादि नहीं। लाटी संहिता में कहा है--
प्रक्षालनं च वस्त्राणां प्रासुकेन जलादिना । कुर्यात् स्वस्य हस्ताभ्यां कारयेद्वा सधर्मणा ।।
अर्थात-कपड़े धोना, जलादि भरना आदि कार्य स्वयं अपने हाथ से कर सकता है और दूसरे साधर्मियों से करा सकता है ॥२३।।१४४॥
अधुना परिग्रहनिवृत्तिगुणं धावकस्य प्ररूपयन्नाह