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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ ३३१ यो प्यूपारमति विशेषेण उपरतः व्यापारेभ्यः आसमन्तात् जायते असावारम्भविनिवृत्तो भवति । कस्मात् ? आरम्भतः । कथंभूतात् ? सेवाकृषिवाणिज्याः प्रमुखा आद्या यस्य तस्मात् । कथंभूतात् ? प्राणातिपातहेतोः प्राणानामतिपातो वियोजनं तस्य हेतोः कारणभूतात् । अनेन स्नपनदानपूजाविधानाद्यारंभादुपरतिनिराकृता तस्य प्राणातिपातहेतुत्वाभावात् प्राणिपीडापरिहारेणैव तत्सम्भवात् । वाणिज्याद्यारम्भादपि तथा सम्भवस्तहि विनिवृत्तिर्न स्यादित्यपि नानिष्टं प्राणिपीडाहेतोरेव तदारम्भात् निवृत्तस्य श्रावकस्यारम्भविनिवृत्तत्वगुणसम्पन्नतोपपत्तेः ॥२३॥ - अब श्रावक के आरम्भनिवृत्ति नामक गुणका प्रतिपादन करते हुए कहते हैं
(य:) जो ( प्राणातिपातहेतोः ) प्राणघात के कारण ( सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखात्) सेवा, खेती तथा व्यापार आदि ( आरम्भतः ) आरम्भ से ( व्युपारमति ) निवृत्त होता है (असौं) वह (आरम्भविनिवृत्तः) आरम्भत्याग प्रतिमा का धारक है ।
___टोकार्थ-जो आरम्भादि से सब ओर से निवृत्त होता है वह आरम्भनिवृत्त कहलाता है । आरम्भ में नौकरी खेती तथा व्यापार आदि प्रमुख हैं। आरम्भादि का त्याग क्यों किया जाता है ? इसके समाधान में 'प्राणातिपातहेतोः' यह हेत्वर्थक विशेषण दिया है, कि जो आरम्भ प्राणघात का कारण है इसलिये इससे निवृत्त होना चाहिए। इस विशेषण के देने से यह सिद्ध हो जाता कि आरम्भत्याग प्रतिमाधारी श्रावक अभिषेक, दान-पूजन आदि के लिए आरम्भ कर सकता है। उससे निवृत्त नहीं हो सकता, क्योंकि यह प्राणघात का कारण नहीं है, यह कार्य प्राणि हिंसा को बचाकर ही किया जाता है । यहाँ पर प्रश्न हो सकता है कि जिस व्यापारादि में हिंसा नहीं होती उसे वह कर सकता है क्या? इसके उत्तर में कहा है कि ऐसे आरम्भ से उसकी निवृत्ति न हो यह हमें अनिष्ट नहीं है, क्योंकि जो आरम्भ प्राणि पीड़ा का हेतु है उससे निवृत्त होने वाले श्रावक के यह आरम्भत्याग प्रतिमा होती है।
विशेषार्थ --पहले की सात प्रतिमाओं के संयम में पूर्ण निष्ठ जो श्रावक प्राणियों की हिंसा का कारण होने से खेती, नौकरी, व्यापार आदि आरम्भों को मनवचन-काय से न स्वयं करता है और ना दूसरों से कराता है वह आरम्भविरत है।
रोजगार-धन्धों के कार्यों को आरम्भ कहते हैं । क्योंकि उससे जीवघात होता है। ऐसा श्रावक दान-पूजा आदि का आरम्भ तो कर सकता है क्योंकि ये प्राणिघात