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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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जितना भी परिग्रह उसने अपने लिए निश्चित किया है, उसमें हो सन्तुष्ट होकर अपने व्रतों की रक्षा कर सकता है । इस प्रकार तत्त्वज्ञान से सम्पन्न नवम प्रतिमाधारी श्रावक समस्त चेतन-अचेतन परिग्रह को छोड़कर ममत्वभाव से होने वाले संयम में शिथिलता को दूर करने के लिए उपेक्षा का चिन्तन करते हुए कुछ समय तक घर में रहे। इस प्रकार से वह उदासीनता को अभ्यास करते हुए कुछ समय तक घर में रहता है । ममत्वभाव होने से ही अभी वह आरम्भ आदि में पुत्र आदि को अनुमति देता है । अपने शरीर को ढकने के लिए मात्र वस्त्र धारण करता है किन्तु उसमें भी मूर्च्छा नहीं रखता ||२४ ॥ १४५।।
साम्प्रतमनुमतिविरतिगुणं श्रावकस्य प्ररूपयन्नाह -
अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे ऐहिकेषु कर्मसु वा ।
नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ||२५||
सोऽनुमतिविरतो मन्तव्यः यस्य खलु स्फुटं नास्ति । काऽसौ ? अनुमतिरभ्युपगमः । क्व ? आरम्भे कृष्यादी | वा शब्दः सर्वत्र परस्परसमुच्चयार्थः । परिग्रहे वा धान्यदासीदासादी । ऐहिकेषु कमसु वा विवाहादिषु । किविशिष्टः समधी: रागादि रहित बुद्धिः ममत्वरहित बुद्धिर्वा ||२५||
अब श्रावक के अनुमति त्याग गुण का वर्णन करते हुए कहते हैं—
( खलु ) निश्चय से ( आरम्भे ) खेती आदि के आरम्भ में ( वा ) अथवा ( परिग्रहे) परिग्रह में (बा) अथवा ( ऐहिकेषु कर्मसु ) इस लोक सम्बन्धी कार्यों में (यस्य) जिसके ( अनुमतिः ) अनुमोदना ( न अस्ति ) नहीं है वह ( समधी: ) समान बुद्धि का धारक ( अनुमतिविरत: ) अनुमतित्याग प्रतिमाघारी ( मन्तव्यः ) माना जाना चाहिए ।
टोकार्थ - जो खेती आदि आरम्भ और धन-धान्य- दासो दास आदि परिग्रह तथा इस लोक सम्बन्धी विवाह आदि कार्यों में अनुमति नहीं देता है तथा इष्ट, अनिष्ट पदार्थों में समभाव रखता हुआ रागादि रहित होता है, उसे अनुमतित्याग प्रतिमा का धारक जानना चाहिए ।