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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
बुभुक्षा मोहनीय कर्म का कार्य है । अतः जिनके मोह का सर्वथा क्षय हो चुका है ऐसे अरहन्त भगवान के वह कैसे हो सकती है ? यदि ऐसा न माना जाएगा तो फिर रिरंसा - रमण करने की इच्छा भी उनके होनी चाहिए। और उसके होने पर सुन्दर स्त्री आदि के सेवन का प्रसंग भी आ जाएगा। उसके आने पर अरहन्त भगवान की वीतरागता ही समाप्त हो जाएगी । यदि यह कहा जाए कि विपरीत भावनाओं के वश से रागादिक की हीनता का अतिशय देखा जाता है । अर्थात् रागादिक के विरुद्ध भावना करने से रागादिक में ह्रास देखा जाता है । केवली भगवान के रागादिक की हानि अपनी चरम सीमा को प्राप्त है, इसलिए उनकी वीतरागता में बाधा नहीं आती? इसका उत्तर यह है कि यदि ऐसा है तो उनके भोजनाभाव की परम प्रकर्षता क्यों नहीं हो सकती, क्योंकि भोजनाभाव की भावना से भोजनादिक में भी ह्रास का अतिशय देखा जाता है । जैसे जो पुरुष एक दिन में अनेक बार भोजन करता है वही पुरुष कभी विपरीत भावना के वंश से एक बार भोजन करता है । कोई पुरुष एक दिन के अन्तर से भोजन करता है और कोई पुरुष पक्ष, मास तथा वर्ष आदि के अन्तर से भोजन करता है ।
दूसरी बात यह भी है कि अरहन्त भगवान के जो बुभुक्षा सम्बन्धी पीड़ा होती है और उसकी निवृत्ति भोजन के रसास्वादन से होती है तो यहाँ पूछना यह है कि वह रसास्वादन उनके रसना इन्द्रिय से होता है या केवलज्ञान से यदि रसना इन्द्रिय से होता है, ऐसा माना जाय तो मतिज्ञान का प्रसंग आने से केवलज्ञान का अभाव हो जाएगा । इस दोष से बचने के लिये यदि केवलज्ञान से रसास्वाद माना जाए तो फिर भोजन की आवश्यकता ही क्या है, क्योंकि केवलज्ञान के द्वारा तो तीन लोक के मध्य में रहने वाले दूरवर्ती रसका भी अच्छी तरह अनुभव हो सकता है । एक बात यह भी है कि भोजन करने वाले अरहन्त के केवलज्ञान हो भी कैसे सकता है, क्योंकि भोजन करते समय वे श्रेणी से पतित होकर प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती हो जायेंगे । जब अप्रमत्तविरत साधु, आहार की कथा करने मात्र से प्रमत्त हो जाता है, तब अरहन्त भगवान भोजन करते हुए भी प्रमत्त न हों यह बड़ा आश्चर्य है । अथवा केवलज्ञान मान भी लिया जाय तो भी केवलज्ञान के द्वारा मांस आदि अशुद्ध द्रव्यों को देखते हुए वे कैसे भोजन कर सकते हैं। क्योंकि अन्तराय का प्रसंग आता है । अल्पशक्ति के धारक गृहस्थ भी जब मांसादिक को देखते हुए अन्तराय करते हैं तब अनन्तवीर्य के धारक