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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार यदि कोई यह कहे कि देवों के मानसिक आहार होता है उससे उनके शरीर की स्थिति देखी जाती है तो उसका उत्तर यह है कि केवली भगवान् के भी कर्म तथा नोकर्म आहार होता है उससे उनके शरीर की स्थिति रह सकती है। यदि यहाँ यह कहा जावे कि आप्त का शरीर हमारे शरीर के समान ही तो मनुष्य का शरीर है इसलिए जिस प्रकार हमारा शरीर आहार के बिना नहीं टिक सकता उसी प्रकार आप्त का शरीर भी आहार के बिना नहीं ठहर सकता। इसका उत्तर यह है कि यदि आहार की अपेक्षा आप्त भगवान के शरीर से हमारे शरीर की तुलना की जाती है तो जिस प्रकार केवली भगवान के शरीर में पसीना आदि का अभाव है उसी प्रकार हम छद्मस्थों के शरीर में भी पसीना आदि का अभाव होना चाहिए क्योंकि मनुष्य शरीरत्वरूप हेतु दोनों में विद्यमान है । इसके उत्तर में यदि यह कहा जाये कि हमारे शरीर में वह अतिशय नहीं पाया जाता जिससे कि पसीना आदि का अभाव हो, परन्तु केबली भगवान के तो वह अतिशय पाया हो जाता है जिसके कारण उनके शरीर में पसोना आदि नहीं होता, तो इसका उत्तर यह है कि जब केवली भगवान के पसीना आदि के अभाव का अतिशय माना जाता है तब भोजन के अभाव का अतिशय क्यों नहीं हो सकता ? दूसरी बात यह है कि जो धर्म हम छद्मस्थों में देखा जाता है; वह यदि भगवान में भी सिद्ध किया जाता है तो जिस प्रकार हम लोगों का ज्ञान इन्द्रियजनित है उसी प्रकार भगवान का ज्ञान भी इन्द्रियजनित मानना चाहिए। इसके लिए निम्न प्रकार का अनुमान किया जाता है-'भगवते ज्ञानमिन्द्रियजं ज्ञानत्वात् अस्मदादिज्ञानवत' भगवान का ज्ञान इन्द्रिय जनित है क्योंकि वह ज्ञान है हमारे ज्ञान के समान । इस अनुमान से अरहत्त भगवान के केवलज्ञानरूप अतीन्द्रियज्ञान असम्भव हो जाएगा और तब सर्वज्ञता के लिए जलाञ्जलि देनी पड़ेगी। यदि यह कहा जाए कि हमारे और उनके ज्ञान में ज्ञानत्व की अपेक्षा समानता होने पर भी उनका ज्ञान अतीन्द्रिय है तो इसका उत्तर यह है कि हमारे और उनके शरीरस्थिति को समानता होने पर भी उनको शरीरस्थिति बिना कवलाहार के क्यों नहीं हो सकती ? अरहन्त भगवान के असातावेदनीय का उदय रहने से बुभुक्षा-भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है, इसलिए भोजनादि में उनकी प्रवृत्ति होती है, यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि जिस वेदनीय के साथ मोहनीय कर्म सहायक रहता है, वही बभक्षा के उत्पन्न करने में समर्थ होता है । भोजन करने की इच्छा को बुभुक्षा कहते हैं । वह
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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