________________
१८ ]
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
टीकार्थ-- क्षुधा-भूख, पिपासा-प्यास, जरा-बुढ़ापा, वात-पित्त तथा कफ के विकार से उत्पन्न रोग, कर्मों के उदय से चारों गतियों में उत्पत्ति का होना जन्म है । अन्तक-मृत्यु, इहलोकमय, परलोकमय, अयाणथ, अनुप्तिमय, मरणभय, वेदनाभय और आकस्मिकभय ये सात भय हैं । जाति कुलादि के गर्व को समय-अहंकार कहते हैं। इष्टवस्तु के प्रति प्रोति-राग है, अनिष्ट वस्तु में अप्रीति का होना द्वेष है, शरीरादिक परवस्तुओं में ममकार बुद्धि का होना मोह कहलाता है। श्लोक में आये हुए च शब्द से चिन्ता-अरति, निद्रा, विस्मय, मद, स्वेद और खेद इन सात दोषों का ग्रहण होता है। इष्टवस्तु का वियोग होने पर उसे प्राप्त करने के लिए मन में जो विकलता होती है उसे चिन्ता कहते हैं, अप्रियवस्तु का समागम होने पर जो अप्रसन्नता होती है, वह अरति है। निद्रा का अर्थ प्रसिद्ध है। इसके पांच भेद हैं निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगद्धि । आश्चर्यरूप परिणाम को विस्मय कहते हैं। नशा को मद कहते हैं, पसीना को स्वेद कहते हैं, और थकावट को खेद कहते हैं, ये सब मिलकर अठारह दोष कहलाते हैं। ये दोष जिनमें नहीं पाये जाते हैं, वे ही आप्त कहलाते हैं ।
यहाँ शंकाकार कहता है कि आप्त के क्षुधा की बाधा होती है, क्योंकि भूख के अभाव में आहारादिक में प्रवृत्ति नहीं होगी और आहारादिक में प्रवृत्ति न होने से शरीर की स्थिति नहीं रह सकेगी । किन्तु आप्त के शरीर की स्थिति रहती है। अतः उससे आहार की भी सिद्धि हो जाती है। यहां पर निम्न प्रकार का अनुमान होता है
केबली भगवान की शरीर स्थिति आहारपूर्वक होती है क्योंकि वह शरीर स्थिति है, हमारी शरीर स्थिति के समान । जिस प्रकार हम छद्मस्थों का शरीर आहार के बिना स्थिर नहीं रहता उसी प्रकार आप्त भगवान का शरीर भी आहार के बिना स्थिर नहीं रह सकता। अतः उनके आहार अवश्य होता है और जब आहार है तो क्षुधा का मानना भी अनिवार्य होगा ?
इस शंका के उत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि आप आप्त भगवान के आहार मात्र सिद्ध कर रहे हो या कवलाहार ? प्रथम पक्ष में सिद्ध साधनता दोष आता है, क्योंकि सयोग केवलो पर्यन्त तक के सभी जीव आहारक हैं ऐसा आगम में स्वीकार किया है । और दूसरे पक्ष में देवों की शरीरस्थिति के साथ व्यभिचार आता है क्योंकि देवों के सर्वदा कवलाहार का अभाव होने पर भी शरीर की स्थिति देखी जाती है।