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रत्नकरण्ड श्रावकाचार अरहन्त भगवान क्या अन्तराय नहीं करेंगे ? यदि नहीं करते हैं तो उनमें भी हीनशक्ति का प्रसंग आता है। यदि अरहन्त भगवान के क्षुधा सम्बन्धी पीड़ा होती है तो उनके अनन्त सुख किस प्रकार हो सकता है ? जबकि वे नियम से अनन्तचतुष्टय के स्वामी होते हैं । जो अन्तराय से सहित है, उसके ज्ञान के समान सुख की अनन्तता नहीं हो सकती । अर्थात् जिस प्रकार अन्तराय सहित ज्ञान में अनन्तता नहीं होती उसी प्रकार अन्तराय सहित अरहन्त के सुख में अनन्तता नहीं हो सकती । 'क्षुधा पीड़ा ही नहीं है ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि लोक में यह उक्ति प्रसिद्ध है कि 'क्षधासमा नास्ति शरीर वेदना' क्षुधा के समान दूसरी कोई शरीर पीड़ा नहीं है। इस विषय को यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है क्योंकि प्रमेयक्रमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में विस्तार से इसका निरूपण किया गया है।
विशेषार्थ-इस कारिका में जो अठारह दोषों का उल्लेख किया गया है उन दोषों से रहित होने पर ही वास्तव में आप्त की आप्तता मानी जाती है । जो इन दोषों से रहित नहीं हैं वे यदि अन्य दोषों से रहित भी हों तब भी उनमें सच्ची आप्तता नहीं मानी जा सकती। क्योंकि इन में से कुछ दोष घातिया कर्म निमित्तक हैं और कुछ अघातिया कर्म निमित्तक हैं जैसा कि बतलाया जा चुका है। यदि आप्त इन दोषों से रहित नहीं माने जाते हैं तो निश्चित है कि अन्य संसारी जीवों के समान वे अरहन्त भी उन कर्मों का फल भोगने वाले होंगे। इसलिये वे मोक्षमार्ग के प्रणेता भी नहीं कहला सकेंगे। जिस व्यक्ति में आप्तता का निदर्शन करना है उसमें सबसे पहले निर्दोषता का सद्भाव दिखाना जरूरी है। जिस तरह मलिनवस्त्र पर ठीक-ठीक रंग नहीं चढ़ता उसी प्रकार कर्मों से मलिन आत्मा में भी आप्तता का वास्तविक रंग नहीं चढ़ सकता है।
वेदनीयकर्म यथायोग्य कर्मों के उदय से उत्पन्न अवस्था का वेदन कराता है। जहाँ पर जिस कर्म का उदय-सत्त्व नहीं वहाँ पर तज्जनित अवस्था का वेदन नहीं हो सकता । भोजन में प्रवृत्ति भी संज्वलन कषाय के तीव्र उदय या उदीरणा तक ही हो सकती है, ऐसी अवस्था छठे गुणस्थान तक ही मानी गई है। इस गुणस्थान तक के जीव ही भूख-प्यासादि की बाधा को दूर करने के लिए भोजनादि में प्रवृत्ति करते हैं । इसके ऊपर के सभी जीव अप्रमत्त हैं। और वहाँ ध्यान अवस्था है। अतएव सयोग केबलो भगवान के आहार में प्रवृत्ति मानना नितान्त असंगत है। और अवर्णवादरूप