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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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लेता है वह रात्रिभुक्तव्रत है। और इस ग्रन्थ के अनुसार जो रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है वह रात्रिभुक्ति त्यागनत है । उसमें कहा है कि जो रात्रि में अन्न, पान, खाद्य, लेह्य चारों प्रकार के आहार को नहीं खाता वह रात्रिभुक्तिविरत है ।। २१ ।। १४२ ॥
साम्प्रतम् ब्रह्मविरतत्वगुणं श्रावकस्य दर्शयन्नाह-
मलबीजं मलयोनि गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सं । पश्यन्नंगमनगाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥ २२ ॥
अनङ्गात् कामाद्यो विरमति व्यावर्तते स ब्रह्मचारी । किं कुर्वन् ? पश्यन् । किं तत् ? अङ्ग शरीरं । कथंभूतमित्याह-- मलेत्यादि मलं शुक्रशोणितं बीजं कारणं यस्य । मलयोनि मलस्य मलिनतायाः अपवित्रत्वस्य योनिः कारणं । गलन्मलं गलन् रत्रवन् मलो मूत्रपुरीषस्वेदादिलक्षणो यस्मात् । पूतिगंधि दुर्गन्धोपेतं । बीभत्सं सर्वावयवेषु पश्यतां बीभत्सभावोत्पादकं ||२२||
अब श्राक के अब्रह्मविरतनामक गुण को दिखाते हुए कहते हैं
( मलबीजं ) शुक्रशोणित रूप मल से उत्पन्न ( मलयोनि) मलिनता का कारण ( गलन्मलं ) मलमूत्रादि को झराने वाले (पूर्तिगन्धि ) दुर्गन्ध से सहित और ( बीभत्सं ) ग्लानि को उत्पन्न करने वाले ( अङ्ग ) शरीर को ( पश्यत् ) देखता हुआ (यः) जो ( अनङ्गात् ) काम सेवन से ( विरमति ) विरत होता है ( स ) वह ( ब्रह्मचारी ) ब्रह्मचारी अर्थात् ब्रह्मचर्य प्रतिमा का धारक है ।
टोकार्थ - जो स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के शरीर को देखकर कामादिक से विरक्त मल- शुक्र - शोणितरूप मल का कारण कारण है । इस शरीर से मल, मूत्र, पसीना आदि सहित है इसके सभी अंगों को देखकर ग्लानि ही
होते हैं, वे ब्रह्मचारी हैं । यह शरीर कैसा है ? है । मलयोनि - अपवित्रता का झरते रहते हैं । यह दुर्गन्ध उत्पन्न होती है ।
से
विशेषार्थ - ब्रह्म के अनेक अर्थ हैं । चारित्र, आत्मा, ज्ञानादि । ब्रह्मणि आत्मनि चरतीति ब्रह्मचारी' जो आत्मा में चरण करता है यानी अपने ज्ञाता द्रष्टा