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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ ३२९ लेता है वह रात्रिभुक्तव्रत है। और इस ग्रन्थ के अनुसार जो रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है वह रात्रिभुक्ति त्यागनत है । उसमें कहा है कि जो रात्रि में अन्न, पान, खाद्य, लेह्य चारों प्रकार के आहार को नहीं खाता वह रात्रिभुक्तिविरत है ।। २१ ।। १४२ ॥ साम्प्रतम् ब्रह्मविरतत्वगुणं श्रावकस्य दर्शयन्नाह- मलबीजं मलयोनि गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सं । पश्यन्नंगमनगाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥ २२ ॥ अनङ्गात् कामाद्यो विरमति व्यावर्तते स ब्रह्मचारी । किं कुर्वन् ? पश्यन् । किं तत् ? अङ्ग शरीरं । कथंभूतमित्याह-- मलेत्यादि मलं शुक्रशोणितं बीजं कारणं यस्य । मलयोनि मलस्य मलिनतायाः अपवित्रत्वस्य योनिः कारणं । गलन्मलं गलन् रत्रवन् मलो मूत्रपुरीषस्वेदादिलक्षणो यस्मात् । पूतिगंधि दुर्गन्धोपेतं । बीभत्सं सर्वावयवेषु पश्यतां बीभत्सभावोत्पादकं ||२२|| अब श्राक के अब्रह्मविरतनामक गुण को दिखाते हुए कहते हैं ( मलबीजं ) शुक्रशोणित रूप मल से उत्पन्न ( मलयोनि) मलिनता का कारण ( गलन्मलं ) मलमूत्रादि को झराने वाले (पूर्तिगन्धि ) दुर्गन्ध से सहित और ( बीभत्सं ) ग्लानि को उत्पन्न करने वाले ( अङ्ग ) शरीर को ( पश्यत् ) देखता हुआ (यः) जो ( अनङ्गात् ) काम सेवन से ( विरमति ) विरत होता है ( स ) वह ( ब्रह्मचारी ) ब्रह्मचारी अर्थात् ब्रह्मचर्य प्रतिमा का धारक है । टोकार्थ - जो स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के शरीर को देखकर कामादिक से विरक्त मल- शुक्र - शोणितरूप मल का कारण कारण है । इस शरीर से मल, मूत्र, पसीना आदि सहित है इसके सभी अंगों को देखकर ग्लानि ही होते हैं, वे ब्रह्मचारी हैं । यह शरीर कैसा है ? है । मलयोनि - अपवित्रता का झरते रहते हैं । यह दुर्गन्ध उत्पन्न होती है । से विशेषार्थ - ब्रह्म के अनेक अर्थ हैं । चारित्र, आत्मा, ज्ञानादि । ब्रह्मणि आत्मनि चरतीति ब्रह्मचारी' जो आत्मा में चरण करता है यानी अपने ज्ञाता द्रष्टा
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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