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रत्नकरण्ड श्रावकाचार लेह्य-चाटने योग्य पदार्थ को (नाइनाति) नहीं खाता है ( स च ) वह ( रात्रिभुक्तिविरत: रात्रि भक्तित्याग प्रतिमाधारी श्रावक (अस्ति) है। .
टीकाणं-वह श्रावक रात्रि भोजन त्याग प्रतिमाधारी कहलाता है जो अन्नभात, दाल आदि; पान-दाख आदि का रस; खाद्य-लड्ड आदि और लेह्य-रबड़ी आदि पदार्थों को जीवों पर अनुकम्पा दया करता हुआ रात्रि में नहीं खाता है ।
विशेषार्थ- छठी प्रतिमा रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा है। यहाँ प्रश्न है कि इस प्रतिमा में चार प्रकार के आहार का त्याग करने को कहा है । किन्तु रात्रि में जल तक का त्याग तो पहली दर्शन प्रतिमा में ही हो जाता है तो भोजन का तो कोई प्रश्न ही नहीं है । ऐसी स्थिति में इस प्रतिमा की उपयोगिता क्या हुई ? इसका उत्तर यह है कि इस प्रतिमा के पूर्व की प्रतिमाओं में तो कृत की अपेक्षा ही त्याग था, अर्थात् स्वयं रात्रि में भोजन नहीं करना । परन्तु इस प्रतिमा में कृत-कारित-अनुमोदना, और मन-वचन-काय इन नौ कोटियों से त्याग हो जाता है । अर्थात् इस प्रतिमा का धारक न तो स्वयं रात्रि भोजन करता है और न दूसरों को कराता है और न करते हुए की अनुमोदना ही करता है।
किन्ही आचार्यों ने इस प्रतिमा का नाम दिवामथन त्याग प्रतिमा रखा है। काम सेवन के दोष, स्त्री के दोष, स्त्री संसर्ग के दोष और अशौच तथा आर्य पुरुषों की संगति ये स्त्री से विरक्त होने के निमित्त हैं। काम सेवन आदि के दोषों का चिन्तन करने से तथा ब्रह्मचारी कामजयी पुरुषों की संगति से स्त्री से विराग उत्पन्न होता है। जब उसका मन उन निमित्तों में एकाग्र न हो जाये अर्थात् उसके मन में स्त्री सेवन न करने के प्रति दृढ़ता आ जावे तब पहले दिन में उसका सेवन न करने का नियम लेने वाला श्रावक छठी प्रतिमा का धारी होता है, यहां पर इतनी विशेषता है कि इस प्रतिमा का धारक मात्र काय से ही नहीं किन्तु मन-वचन-काय और कृत-कारित, अनुमोदना से भी दिन में मथुन का त्याग करता है वह छठी प्रतिमा का धारक है।
पहले कहा था कि छठी प्रतिमा के स्वरूप को लेकर ग्रन्थकारों में थोड़ा मत भेद है । छठी प्रतिमा का नाम रात्रिभक्त व्रत भी है। भक्त का अर्थ स्त्री सेवन भी होता है, जिसे भाषा में भोगमा कहते हैं और भोजन भी होता है । चारित्रसार आदि ग्रन्थों के मत से जो रात्रि में स्त्री सेवन का व्रत (यानी दिन में स्त्री सेवन का त्याग)