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________________ ३२६ ] रत्नकरण्ड थावकाचार गोभी आदि के फूल को प्रसून कहते हैं और गेहूं आदि को बीज कहा जाता है । ये सब अपक्व अवस्था में सचित्त सजीव रहते हैं अतः दयामूर्ति-दया का धारक श्रावक इन्हें नहीं खाता है। विशेषार्थ-पूर्वोक्त चार प्रतिमाओं का निर्वाह करने वाला दयामूर्ति श्रावक अप्रासुक अर्थात् अग्नि में न पकाये हुए हरित अंकुर, हरितबीज, जल आदि को नहीं खाता । वह सचित्तत्याग प्रतिमाधारी है। पं० आशाधरजी ने कहा है जो म्लान नहीं हुई है, आद्र अवस्था में है, उसे हरित कहा है । आचार्य समन्तभद्र ने उसे 'आम' शब्द से कहा है । आम का अर्थ होता है कच्चा, जो पका नहीं है। और अप्रासुक का अर्थ पं० आशाधरजी ने किया है जो आग से नहीं पकाया गया है । यद्यपि अप्रासक को प्रासुक करने के कई प्रकार आगम में कहे हैं सक्कं पक्कं तत्तौं अंविललवणेन मिस्सियंदच्वं । जं जतेण य छिण्णं तं सव्वं फासवं भणियं ।। अर्थ--सुखाना, पकाना, आग पर गर्म करना, चाकू से छिन्न-भिन्न करना, उसमें नमक आदि मिलाना ये सब प्रासुक करने की विधियां हैं । लाटी संहिता में कहा है कि सचित्तविरत प्रतिमा में सचित्त भक्षण के त्याग का नियम है, सचित्त को स्पर्श करने का त्याग नहीं है। इसलिए अपने हाथ से उसे प्रासुक करके भोजन में ले सकता है। सचित्तविरत को दयामूर्ति क्यों कहा ? इसका समर्थन करते हुए कहा है, पाँचवी प्रतिमा के साधन में तत्पर जो श्रावक प्रयोजनवश हरित वनस्पति को पैर से छने में भी अत्यन्त घृणा करता है, क्योंकि उसमें अनन्त निगोद नामक साधारण शरीर वनस्पतिकायिक जीवों का वास है तो क्या वह उस हरित वनस्पति को खायेगा? अर्थात् नहीं खायेगा। आगम में हरित वनस्पति में अनन्त निगोदिया जीवों का बास कहा है । प्रत्येक वनस्पति के दो भेद हैं--सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक । जिस प्रत्येक वनस्पति के आश्रय से साधारण बनस्पतिकायिक जीव रहते हैं उसे सप्रतिष्ठित
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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