________________
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ ३२५ सूचित किया है कि शक्ति के रहते हुए तो उपवास करे परन्तु रोग या वृद्धावस्था के कारण शक्ति क्षीण हो गई हो तो अनुपवास या एकाशन, अल्प आहार या कांजी आहार भी लेकर ध्यान में लीन हो सकता है ।
परमकाष्ठा को प्राप्त प्रोषधोपवासियों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं जो अशुभकर्म की निर्जरा के लिए मुनि की तरह कायोत्सर्ग से स्थित होकर पर्व की रात बिताते हैं, और किसी भी परीषह अथवा उपसर्ग द्वारा समाधि से च्युत नहीं होते, उन चतुर्थ प्रतिमाधारी श्रावकों का हम स्तवन करते हैं ऐसा आशाधरजी ने कहा है
"निशां गमयन्तः प्रतिमायोगेन दरितच्छिदे । ये क्षोभ्यन्ते न केनापि तान्नुमस्तुर्यभूमिगान् ।
॥ १६ ॥ १४० ।। इदानीं श्रावकस्य सचित्तविरतिस्वरूपं प्ररूपयन्नाहमूलफलशाक शाखाकरीरकन्दप्रसूनबीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ॥२०॥
सोऽयंश्रावकः सचित्तविरति गुणसम्पन्नः । यो नात्ति न भक्षयति । कानीत्याहमूलेत्यादि-मूलं च फलं च शाकश्च शाखाश्च कोपलाः करीराश्च वंशकिरणाः कंदाश्च प्रसूनानि च पुष्पाणि बीजानि च तान्येतानि आमानि अपक्वानि यो नात्ति । कथंभूतः सन् ? दयामूर्तिः दयास्वरूपः सकरुणचित्त इत्यर्थः ।।२०।।
अब श्रावक के सचित्तविरति-गुण का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं
(य:) जो (दयामूर्तिः) दया की मति होता हुआ (आमानि) अपक्व-कच्चे ( मूलफलशाकशाखाकरीरकन्दप्रसूनबीजानि ) मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, कन्द, प्रसून और बीज को (न अत्ति) नहीं खाता है ( सोऽयं ) वह यह ( सचित्तविरतः ) सचित्त त्यागी है।
टोकार्थ-गाजर, मूली आदि मूल कहलाते हैं । आम, अमरूद आदि फल हैं, पत्ती वाले शाक भाजी कहलाते हैं । वृक्ष की नई कोंपल शाखा कहलाती है। बांस के अंकर को करीर कहते हैं, जमीन में रहने वाले अंगीठा आदि को कन्द कहते हैं।