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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ ३२३ और दूसरी व्रत प्रतिमा के सम्यग्दर्शन, मूलगुण तथा उत्तरगुणों का पूर्ण अभ्यासी अवश्य होना चाहिए । उस अभ्यास के प्रसाद से उसके रागादि और क्षीण होंगे । तथा शुद्ध आत्मा के विकसित हुए ज्ञान से होने वाले सुख का स्वाद भी बढ़े । यही ज्ञान की विशुद्धता है । द्रव्यश्रुत के ज्ञान के साथ भावथ तज्ञान भी होना चाहिए। तभी तो वह तीनों सन्ध्याओं में कष्ट आने पर भी साम्यभाव से नहीं डिगता है। मोह और क्षोभ से रहित आत्म परिणाम को साम्य कहते हैं । सामायिक प्रतिमा बाला साम्यभाव का धारी होता है। सामायिक काल में कष्ट आने पर साम्यभाव से विचलित नहीं होना चाहिए। अनगार धर्मामृत के षडावश्यक अध्याय में जो वन्दना कर्म कहा है, उसे कृतिकर्म कहते हैं । तीनों सन्ध्याओं में कृतिकर्म करने को व्यवहार सामायिक कहते हैं। साहार सरमिक पूर्वक ध्यान होता है। इस ध्यान का लक्षण है सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकाग्रता । वह ध्यान ऐसा निश्चल हो कि अन्य उपसर्ग की तो बात ही क्या, यदि वज्र भी आ पड़े तो भी विचलित न हो। ऐसी स्थिरता निश्चय सामायिक है। जिस महात्मा ने व्यवहार सामायिक पूर्वक निश्चय सामायिक प्रतिमा पर आरोहण किया, उसने सामायिक व्रत रूपी देवालय के शिखर पर कलश चढ़ा दिया। दूसरी प्रतिमा में जो सामायिक शिक्षावत है उसका शीलवत रूप में पालन होता है। उसमें दो घड़ी के समय का और तीन बार सामायिक करने का नियम नहीं रहता, किन्तु सामायिक प्रतिमा में ये नियम रहते हैं ।।१८।।१३६।। साम्प्रतं प्रोषधोपवासगुणं श्रावकस्य प्रतिपादयन्नाह--- पर्वदिनेषु चतुर्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य । प्रोषधनियमविधायी प्रणिधिपरः प्रोषधानशनः ॥१६॥ प्रोषधेनानशनमुपवासो यस्यासौ प्रोषधानशनः । किमनियमेनापि यः प्रोषधोपकारी सोऽपि प्रोषधानशनव्रत सम्पन्न इत्याह-प्रोषधनियमविधायी प्रोषधस्य नियमोsवश्यंभावस्तं विदधातोत्येवंशील: । क्व तन्नियमविधायी ? पर्वदिनेषु चतुष्वपि द्वयोश्चतुर्दश्योर्द्वयोश्चाष्टम्योरिति । कि चातुर्मासस्यादौ तद्विधायीत्याह-मासे मासे । किं
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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