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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
चंदेहि णिम्मलयरा आइच्चेहि अहिय पया संता। सायर मिव गंभीरा सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥८11
।
( यहाँ तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। पश्चात् दोनों हाथों को मुकुलित कर चैत्य भक्ति पढ़ें 1 )
चैत्य भक्ति के जयति भगवान, हेमाम्भोज-प्रचार-विज़म्भितावमर मुकुटच्छायोद्गीर्ण प्रभा-परिचुम्बितौ । कलुष-हृदया, मानोद् भ्रान्ताः परस्पर-वैरिण:,
विगत कलुषाः पादो यम्य, प्रपद्य विशश्वसुः ।।
इत्यादि चैत्यभक्ति पढ़ें। पश्चात पञ्चमहागुरुभक्ति के लिए पूर्ववत् पंचांग नमस्कार, तीन आवर्त और एक शिरोनति कर सामायिक दण्डक पढ़े और बार णमोकार मन्त्र पूर्वक कायोत्सर्ग करें। पश्चात् पंचांग नमस्कार करें। तदनन्तर तीन आवर्त और एक शिरोनति कर चतुर्विंशति स्तव 'थोस्सामि हं जिणवरे' पढ़ें।
( फिर तीन आवर्त एक शिरोनति करें। पश्चात् वन्दना मुद्रा पूर्वक पंचमहागुरु भक्ति पढ़ें।)
पंच महागुरु भक्ति मणुय णाईद सुर धरिय छत्तत्तया,
पंचकल्लाण-सोक्खावली पत्तया । दसणंणाण झाणं अणंतं बलं,
ते जिणा दितु अम्हं वरं मङ्गलं ।।१।। इत्यादि पञ्चगुरु भक्ति पढ़ें । इसी क्रम से अन्त में समाधिभक्ति पढ़ें।
इस प्रकार व्रती श्रावक निकाल देव वन्दना करे। पहले जो कहा था कि आगे की प्रतिमा धारण करने का अधिकारी वही होता है जो उससे पूर्व की प्रतिमाओं में सदृढ़ होता है । अतः तीसरी प्रतिमा धारण करने वाले को प्रथम दाशिनिक प्रतिमा