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परमान श्राव
वह श्रावक सामायिक गुण से सम्पन्न होता है, यह कहते हैं
(यः) जो (चतुरावर्तत्रितयः) चार बार तीन-तीन आवर्त करता है, { चतुः प्रणामः) चार प्रणाम करता है, (स्थितः) कायोत्सर्ग से खड़ा होता है, ( यथाजात:) बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्यागी होता है, (द्विनिषद्यः) दो बार बैठकर नमस्कार करता है (त्रियोगशुद्ध :) तीनों योगों को शुद्ध रखता है और ( त्रिसन्ध्यं ) तीनों संध्याओं में (अभिवन्दी) वन्दना करता है, वह (सामयिकः) सामायिक प्रतिमाधारी है ।
टीका-सामायिक का लक्षण पहले बता चुके हैं। उस प्रकार जो आचरण करता है वह सामायिक गुण सहित कहलाता है । यहाँ पर सामायिक प्रतिमा का लक्षण बतलाते हुए उसकी विधि का भी निर्देश किया गया है। सामायिक करने वाला व्यक्ति एक-एक कायोत्सर्ग के बाद चार बार तीन-तीन आवर्त करता है। अर्थात् एक कायोत्सर्ग विधान में णमो अरहताणं' इस आद्य सामायिक दण्डक और 'योस्सामि हं' इस अन्तिम स्तव दण्डक के तीन-तीन आवर्त और एक-एक प्रणाम इस तरह बारह आवर्त और चार प्रणाम करता है। सामायिक करने वाला श्रावक इस क्रिया को खड़े होकर कायोत्सर्ग मुद्रा में करता है। सामायिक काल में नग्नमुद्राधारी के समान बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह की चिन्ता से परिमुक्त रहता है । देववन्दना करने वाले को प्रारम्भ में और अन्त में बैठकर प्रणाम करना चाहिए। इस विधि के अनुसार वह दो बार बैठकर प्रणाम करता है-मन-वचन-काय इन तीनों योगों को शुद्ध रखता है और सम्पूर्ण सावध व्यापार का त्याग करता हुआ तीनों सन्ध्याकालों में देव वन्दना करता है ।
विशेषार्थ-सामायिक प्रतिमा वाले के लिए तीनों सन्ध्याकालों-प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सार्यकाल में देववन्दना करने का विधान है। आचार्य वसुनन्दी आदि ने कहा है
जिनबयण धम्म चेइय परमेडी जिणालयाण विच्छ पि ।
जं वंदणं तियालं कीरई सामायियं तं ख ॥
जिन वचन, जिनधर्म, जिनचैत्य, परमेष्ठी तथा जिनालयों को तीनों कालों में जो वन्दना की जाती है, उसे सामायिक कहते हैं।
___ सामायिक करने वाला पुरुष सामायिक के पूर्व चतुर्दिग् वन्दना करे । पश्चात् ईर्यापथ शुद्धि बोले--