________________
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ ३१७ जाति, कुल बन्धु-बान्धवों का अभाव और दरिद्रपने को चाहना संसार हेतु निदान है क्योंकि संसार के बिना जाति आदि की प्राप्ति नहीं होती।
अप्रशस्त निदान के दो भेद हैं-एक भोग के लिए और दूसरा मान के लिए। पांचों इन्द्रियों के विषयों की अभिलाषा भोगार्थ निदान है। अपनी प्रतिष्ठा की चाह करना मानार्थ निदान है । ये दोनों ही निदान संसार में भटकाने वाले हैं । अतः संसार के निमित्त निदान की तो बात ही क्या है। मोक्ष की अभिलाषा भी मोक्ष में रुकावट पैदा करने वाली है इसलिए मुमुक्षुओं को अन्य की अभिलाषा न करके अपनी आत्मा में लीन होना चाहिए।
यदि शल्यों का अभाव न हो तो केवल हिंसा आदि के त्याग करने से व्रती नहीं होता । शल्यों का अभाव होने पर व्रत धारण करने से व्रती होता है।
जिसको सात तत्वों की और देव, शास्त्र, गुरु की यथार्थ प्रतीति नहीं, भले ही वह जन्म से जैन हो और उसने स्वर्ग के लोभ से व्रत धारण किये हों. फिर भी वह शास्त्रानुसार व्रती श्रावक या साधु नहीं है । पंच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षाक्त इन बारह व्रतों को धारण करने वाला ही व्रत प्रतिमा का धारक कहलाता है ।। १७ ।। १३८ ।।
अधुना सामायिकगुणसम्पन्नत्वं श्रावकस्य प्ररूपयन्नाह-- चतुरावतंत्रितयश्चतुः प्रणामः स्थितो यथाजातः । सामयिको विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ॥१८॥
सामयिक: समयेन प्राक्प्रतिपादितप्रकारेण चरतीति सामयिकगुणोपेतः । किविशिष्ट:? चतुरावर्तत्रितयः चतुरो वारानावर्तत्रितयं यस्य । एकैकस्य हि कायोत्सर्गस्य विधाने 'णमो अरहंताणस्य थोसामे' श्चाद्यन्तयोः प्रत्येकमावर्तत्रितयमिति एककस्य हि कायोत्सर्गविधाने चत्वार आवर्ता तथा तदाद्यन्तयोरेककप्रणामकरणाच्चतुः प्रणामः । स्थित ऊर्ध्व कायोत्सर्गोपेतः । यथाजातो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रह चिन्ताव्यावृत्तः । द्विनिषद्यो द्वे निषधे उपवेशने यस्य । देववन्दनां कुर्वता हि प्रारम्भे समाप्ती चोपविश्य प्रणामः कर्तव्यः । त्रियोगशुद्धः त्रयो योगा मनोयाक्कायव्यापारा: शुद्धा सावधव्यापाररहिता यस्य । अभिवन्दी अभिवन्दत इत्येवंशीलः । कथं ? त्रिसंध्यं ॥१८॥