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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार जो इन सभी व्रतों का परिपालन करता हुआ अन्त समय में समाधिपूर्वक मरण करता है, वह साधक है । ३१४ ] पहला भेद देशसंयम की प्रारम्भिक अवस्था को बतलाता है । दूसरा भेद उसकी मध्यम अवस्था को बतलाता है और तीसरा भेद उसकी पूर्णदशा को बतलाता है ।।१५।। १३६ ।। एतदेव दर्शयन्नाह - सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोग निर्विण्णः । पञ्चगुरुचरणशरण दर्शनिकस्तत्वपथगृह्यः ॥१६॥ दर्शनस्यास्तीति दर्शनिको दर्शनिक श्रावको भवति । किं विशिष्टः ? सम्यम्दर्शनशुद्धः सम्यग्दर्शनं शुद्ध निरतिचारं यस्य असंयत सम्यग्टेः । कोऽस्य विशेषइत्यत्राह - संसारशरीरभोगनिर्विण्ण इत्यनेनास्य लेशतो व्रतांश संभवात्ततो विशेषः प्रतिपादितः । एतदेबाह्-तत्त्वपथगृह्यः तत्त्वानां व्रतानां पंथानो मार्गां मद्यादिनिवृत्तिलक्षणा अष्टमूलगुणास्ते गृह्याः पक्षाः यस्य । पंचगुरु चरणशरण: पंचगुरवः पंचपरमेष्ठिनस्तेषां चरणाः शरणमपायपरिरक्षणोपायो यस्य ॥ १६ ॥ आगे यही दिखाते हैं जो ( सम्यग्दर्शन शुद्धः ) सम्यग्दर्शन से शुद्ध है ( संसारशरीरभोगनिर्विण्ण: ) संसार शरीर और भोगों से विरक्त है ( पञ्चगुरुचरणशरणः ) पञ्चपरमेष्ठियों के चरणों की शरण जिसे प्राप्त हुई है तथा ( तत्त्वपथगृह्यः) आठ मूलगुणों को जो धारण कर रहा है, वह ( दर्शनिक: ) दर्शनिक श्रावक है । टीकार्थ --- 'सम्यग्दर्शनं शुद्ध निरतिचारं यस्य स:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसका सम्यग्दर्शन शंकादि दोषों से रहित होने के कारण शुद्ध है, अतिचार रहित है । जो संसार, शरीर और भोगों से उदासीन है । 'तत्त्वानां व्रतानां पन्था मार्गो मद्यादिनिवृत्तिलक्षणा अष्टमूलगुणास्ते गृह्याः पक्षा यस्य' व्रतों के मार्गस्वरूप मद्यादि के त्यागरूप आठमूलगुणों को जिसने ग्रहण किया है तथा पञ्चपरमेष्ठियों के चरणों को जिसने शरण ग्रहण की है, जो दुःखों से रक्षा करने के उपायभूत हैं, ऐसा श्रद्धालु दर्शनिक श्रावक कहलाता है ।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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