________________
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ ३१५
विशेषार्थ-जो स्याद्वादरूप परमागम के प्रसाद से निश्चय-व्यवहार दोनों नयों से स्वतत्त्व और परतत्त्व को जानकर श्रद्धान को दृढ़ करता है, जो व्रतों से रहित है वह अविरत सम्यग्दृष्टि कहलाता है वही जीव अष्टमूलगुणों का निरतिचार पालन करता है, सप्तव्यसन का त्याग करता है, अष्ट मदों से रहित हुआ अभिमान की मन्दता से समस्त गुणवानों से अपने को लघु मानता है । यद्यपि अप्रत्याख्यानावरणकषाय के उदय से उसका विषयों में राम है और वह गृहस्थ के समस्त आरम्भ को करता है, यह भी जानता है कि हमारे मोह के प्रभाव से यह सब कार्य हो रहा है. यह त्यागने योग्य है । वह धर्मात्माओं के उत्तमगुणों को ग्रहण करने में अनुराग रखता है, अष्टादस दोषों से रहित सर्वज्ञ वीतरा दो ही मुन्ना देव मानते हुए उनकी आराधना करता है, दया ही धर्म है, हिंसा में कदाचित् भी धर्म नहीं हो सकता और आरम्भ-परिग्रह रहित ही गुरु होते हैं ऐसे रढ़ श्रद्धानी को सम्यग्दृष्टि कहते हैं । जो संसार-शरीर-भोगों से विरक्त है तथा जिसने पंचपरमेष्ठी काही कारण ग्रहण किया है, वह दर्शनप्रतिमा वाला श्रावक है ।। १६ ।। १३७ ।।
तस्येदानी परिपूर्णदेश व्रतगुणसम्पन्नत्वमाहनिरतिक्रमणमणुबत्तपञ्चकमपि शोलसप्तकं चापि ।
धारयते निःशल्यो योऽसौ प्रतिनां मतो बतिकः ॥१७॥
व्रतानि यस्य सन्तीति नतिको मतः । केषां ? वतिनां गणधरदेवादीनां कोऽसौ ? निःशल्यो-माया-मिथ्या-निदानशल्येभ्यो निष्क्रान्तो निःशल्यः सन योऽसौ धारयते किं तत् ? निरतिक्रमणमणुव्रतपंचकमपि पंचाप्यणुव्रतानि निरतिचाराणि धारयते इत्यर्थः । न केवलमेतदेव धारयते अपि तु शीलसप्तकं चापि त्रिःप्रकार गुणव्रत-चतुःप्रकार शिक्षाबत लक्षणं शीलम् ।।१७।।
आगे वह श्रावक परिपूर्ण देशव्रतरूप गुण से सम्पन्न होता है, यह कहते हैं
(यः) जो ( निःशल्यः ) शल्यरहित होता हुआ ( निरतिक्रमणं ) अतिचार रहित (अणुव्रतपञ्चकमपि) पाँचों अणुव्रतों को (च) और ( शीलसप्तकमपि ) सातों शीलों को (धारयते) धारण करता है। ( असौ ) वह ( अतिनां ) गणधरदेवादिक नतियों के मध्य में (व्रतिकः) व्रतिक श्रावक (मतः) माना गया है।