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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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( नित्यं ) नित्य - अविनाशी ( निर्वाणं ) निर्वाण ( निःश्रेयसं ) निःश्रेयस ( इष्यते ) माना जाता है ।
टोकार्थ --- निर्वाण मोक्ष को निःश्रेयस कहते हैं । वहाँ पर शुद्ध सुख प्राप्त होता है क्योंकि प्रतिपक्षी कर्मों का अभाव है । यह सुख नित्य अविनश्वर स्वरूप है । तथा जन्म, बुढ़ापा, रोग और मरण से, शोक- दुःख भयों से सर्वथा रहित है । एक पर्याय से दूसरी पर्याय की प्राप्ति को जन्म कहते हैं। बुढ़ापा को जरा कहते हैं । रोग को आमय कहते हैं । शरीर का छूटना मरण कहा जाता है । शोक, दुःख, भय का
अर्थ स्पष्ट ही है ।
विशेषार्थ - 'नितरां श्र यो निःश्रेयसम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो अत्यन्त कल्याणरूप है उसे निःश्रेयस कहते हैं। क्योंकि अत्यन्त कल्याणरूप मोक्ष है । जन्म, बुढ़ापा, रोग, मरण, शोक, दुःख आदि से रहित है । मोक्ष तो पूर्ण शाश्वत सुखमय अवस्था है । तथा चतुर्गति के अन्तर्गत देव, देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि के पंचेन्द्रियजन्य जितने भी सुख हैं वे जन्म, जरा, रोग, मरण आदि विपत्तियों से सहित हैं । क्योंकि इन्द्रियजन्य सुख तो दुःखरूप ही हैं । चिरकाल तक रहने वाले नहीं हैं, अस्थायी हैं । परन्तु मोक्ष सुख इनसे विपरीत है जिसको कि यहाँ निर्वाण शब्द से कहा है । इसका अर्थ है ---- ' निःशेषेणवानं गमनं निर्वाणम्' अर्थात् पूर्णस्वरूप की प्राप्ति का होना निर्वाण है। जहां से जीव को अनन्तकाल व्यतीत होने पर भी लौटकर नहीं आना पड़ता ।। १० ।। १३१ ।।
इत्थंभूते व निःश्रेयसे कीदृशाः पुरुषाः तिष्ठन्तीत्याह
विद्यादर्शन शक्ति स्वास्थ्य प्रह्लादतृप्ति शुद्धियुजः । निरतिशया निरवधयो निःश्रेयसमावसन्ति सुखम् ॥११॥
निःश्रेयसमावसन्ति निःश्रेयसे तिष्ठन्ति । के ते इत्याह-- विद्येत्यादि । विद्या केवलज्ञानं, दर्शनं केवलदर्शनं, शक्तिरनन्तवीर्यं स्वास्थ्यं परमोदासीनता, प्रह्लादोऽनन्तसौख्यं तृप्तिविषयानाकांक्षा, शुद्धिद्रव्यभावस्वरूप कर्ममलरहितता, एता युञ्जन्ति आत्मसम्बद्धाः कुर्वन्ति ये ते तथोक्ताः । तथा निरतिशया अतिशयाद्विद्यादिगुणहीनाधिकभावानिष्क्रान्ताः । तथा निरवधयो नियतकालावधिरहिताः । इत्थंभूता ये ते निःश्रयसमावसन्ति | सुखं सुखरूपं निःश्रेयसं । अथवा सुखं यथा भवत्येवं ते तत्रावसन्ति ||११||
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