________________
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
३०८ ]
ऐसे निःश्रेयस-मोक्ष में कैसे पुरुष रहते हैं, यह कहते हैं
( विद्या दर्शनशक्ति स्वास्थ्य प्रह्लादतृप्ति शुद्धियुज: ) केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य, परम उदासीनता, अनन्तसुख तृप्ति और शुद्धि को प्राप्त ( निरतिशयाः ) हीनाधिकता से रहित और (निरवधयः) अवधि से रहित जीव ( मुखं ) सुखस्वरूप (निःश्रेयस) मोक्षरूप निःश्रेयस में (आवसन्ति) निवास करते हैं ।
टोकार्थ— निःश्रेयस-मोक्ष में वे जीव रहते हैं जो विद्या केवलज्ञान, दर्शनकेवलदर्शन, शक्ति-अनन्तवीर्य, स्वास्थ्य-परमउदासीनता, प्रह्लाद-अनन्तसुख, तृप्तिविषयों की आकांक्षा का अभाव, शुद्धि-द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म से रहितपना, इन सभी रो मुत्ता हैं। मिरतिमाय--विहार आदि गुणों की हीनाधिकता से रहित हैं और निरवधि-काल की अवधि से रहित हैं। जो इन सब विशेषणों से युक्त हैं वे जीव निःश्रेयस में सूख से निवास करते हैं ।
विशेषार्थ-धर्म के प्रभाव से आत्मा निःश्रेयस पूर्णकल्याण अवस्था को प्राप्त कर लेता है, मोक्ष में रहने वाले जीवों का ज्ञानावरण कर्म के पूर्ण नष्ट हो जाने से अनन्तज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। उनके दर्शनावरण कर्म के सर्वथा नाश से अनन्त दर्शन प्रकट हो जाता है। अन्तरायकर्म के सर्वथा क्षय से अनन्तवीर्य-परमस्वास्थ्य अवस्था प्राप्त होती है अर्थात् अनन्तशक्ति परमवीतरागता ! मोहकर्म के नाश से अनन्तसख अवस्था प्राप्त होती है इत्यादि । इस प्रकार सम्पूर्ण द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म के अभाव से उत्कृष्ट सुखमय अवस्था प्राप्त होती है। ऐसे नि:श्रेयस-निर्वाण की अलौकिक अवस्था को यह जीव कर्मों के नाश से प्राप्त करता है ।।११।।१३२।।
A
al
-....-.-.....
अनन्ते कालेगच्छति कदाचित् सिद्धानां विद्याद्यन्यथाभावो भविष्यत्यतः कथं निरतिशया निरवधयश्चेत्याशंकायामाह
कालेकल्पशतेपि च गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या। उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकसंभ्रान्ति करणपटुः ॥१२॥
न लक्ष्या न प्रमाणपरिच्छेद्या । कासौ ? विक्रिया विकारः स्वरूपान्यथा भावः । केषां ? शिवानां सिद्धानां । कदा ? कल्पशतेऽपि गते काले । तहि उत्पात