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रत्नकरण्ड श्रावकाचार करता हुआ पीतधर्मा होता है, अर्थात् वह उत्तमक्षमादिरूप अथवा चारित्ररूप धर्म का पान करने वाला होता है ।
विशेषार्थ—सल्लेखना को धारण करने वाला मनुष्य यदि रलत्रय की पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो उसी भव से निर्वाण को चला जाता है। और यदि उसके रत्नत्रय की पूर्णता में कमी रहती है तो वह स्वर्ग को प्राप्त होता है ।। स्वर्ग में महद्धिकदेव होकर बहुत काल तक स्वर्ग सुखों को भोगकर पश्चात् मनुष्यों में आकर राज्यवैभवादि पाकर फिर संसार-शरीर, भोगों से विरक्त होकर शुद्ध संयम धारण कर निःश्रेयस जो निर्वाण है वहाँ के सुखों को प्राप्त करता है। वह निःश्रेयस कैसा है ? जो अन्त से रहित है तथा जो कभी समाप्त होने वाला नहीं है, सुख के समुद्ररूप ऐसे निर्वाण में समस्त दुःखों से रहित होता हुआ अविनश्वर सुख को प्राप्त करता है ।। ६ ।। १३० ।।
किं पुननिःश्रेयसशब्देनोच्यत इत्याह
जन्मजरामयमरणैः शोकदु:खैर्भयैश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ॥१०॥
निःश्रेयसमिष्यते । किं ? निर्वाणं । कथम्भूतं शुद्धसुखं शुद्ध प्रतिद्वन्द्वरहितं मुखं यत्र । तथा नित्यं अविनश्वरस्वरूपं । तथा परिमुक्त रहितं । कः ? जन्मजरामयमरणः, जन्म च पर्यायान्तरप्रादुर्भाव: जरा च वार्धक्यं, आमयाश्च रोगाः, मरणं च शरीरादि प्रच्युतिः । तथा शोकदु:खैर्भयैश्च परिमुक्त ।।१०।।।
अब निःश्रेयस शब्द से क्या कहा जाता है, यह बताते हैं
(जन्मजरामयमरणैः) जन्म, वार्धक्य, रोग, मरण, (शोकः) शोक (दुःखः) दुःख (च) और (भय:) भयों से (परिमुक्त) रहित ( शुद्धसुखं ) शुद्धसुख से सहित
१. विधिपूर्वक सल्लेखना करने वाला मनुष्य सात-आठ भव में नियम से मोक्ष को प्राप्त करता है। ऐमा पाराधनासार में देवसेनाचार्य ने कहा है
जेसि हंति जहण्णा चउब्धिहाराहणा हु खवयाणं । सत्तभवे गन्तु ते वि य पावति णिध्वाणं ।।१०९।।