________________
[ ३०५
इस प्रकार अतिचारों की उपपत्तिपूर्वक त्याग की प्रेरणा की है वहीं इस सल्लेखनाव्रत का संस्कार है । क्योंकि अतिचारों को त्यागने से उसमें विशेषता आ जाती है ||८|| १२६ ।।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
एवं विधे रतिचारैः रहितां सल्लेखनां अनुतिष्ठन् कीदृशं फलं प्राप्नोत्याह-निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम् । निःपिवति पीतधर्मा सर्वदु : खरनालीः ॥ ९॥
निष्पिबति आस्वादयति अनुभवति वा कश्चित् सल्लेखनानुष्ठाता । किं तत् ? निःश्र ेयसं निर्वाणं । किंविशिष्टं ? सुखाम्बुनिधि सुखसमुद्रस्वरूपं । तर्हि सपर्यन्तं तद्भविष्यतीत्याह - निस्तीरं तीरात्पर्यन्तान्निष्क्रान्तं । कश्चित्पुनस्तदनुष्ठाता । अभ्युदय महमिन्द्रादिसुख परम्परां निष्पिबति । कथंभूतं ? दुस्तरं महता कालेन प्राप्यपर्यन्तं । किंविशिष्टः सन् ? सर्वेदु :खेरनालीढः सर्वेः शारीरमानसादिभिदु : खैरनालीढोऽसंस्पृष्ट: । कीदृशः सन्नेतद्वयं निष्पिबति ? पीतधर्मा पीतोऽनुष्ठितो धर्म उत्तमक्षमादिरूपः चारित्रस्वरूपो वा येन ।। ६ ।।
अतिचारों से रहित सल्लेखना को धारण करने वाला मनुष्य कैसे फल को प्राप्त होता है, यह कहते हैं
( पीतधर्मा ) धर्म का पान करने वाला कोई क्षपक ( सर्वै: ) सब ( दुःखों) दुःखों से (अनालीढः ) अछूता रहता हुआ ( निस्तीरं ) अन्त रहित तथा ( सुखाम्बुनिधि ) सुख के समुद्रस्वरूप ( निःश्र ेयसं ) मोक्ष का ( निः पिबति ) अनुभव करता है और कोई क्षपक ( दुस्तरं ) बहुत समय में समाप्त होने वाली ( अभ्युदयं ) अहमिन्द्र आदि की सुखपरम्परा का अनुभव करता है ।
टीकार्थ- सल्लेखना धारण करने का फल मोक्ष और स्वर्गादिक के सुखों की प्राप्ति है । निःश्रेयस निर्वाण को कहते हैं । वह सुख के समुद्ररूप है । निःश्रेयसमोक्ष निस्तीर है । अर्थात् आत्मोत्थमुख अन्त से रहित है । अहमिन्द्रादिक के पद को अभ्युदय कहते हैं । यह दुस्तर है अर्थात् सागरोपर्यन्त काल तक अमिन्द्रादिक के सुखों का पान करते हैं । और शारीरिक, मानसिक आदि सभी दुःखों से अछूते रहते हैं, इस प्रकार दोनों ही पद सुख के समुद्ररूप हैं । सल्लेखना लेने वाला दोनों फलों को प्राप्त