SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार 'यह क्षपक जीवनपर्यन्त के लिए समस्त प्रकार के आहार का मन, बचन, काय से त्याग करेगा' निर्यापकाचार्य इस प्रकार संघ से निवेदन करे। जो कर्मों का क्षपण करता है, वह क्षपक है । उसी संयमी को सब प्रकार का भोजन दिखाकर उसका त्याग कराना चाहिए। इस प्रकार जो क्षपक परीषह की बाधा सहन करने में अति समर्थ होता है, उसके लिए चारों प्रकार के आहार के त्याग का उपदेश देते हैं, और जो क्षपक समर्थ नहीं है, उसके लिये जलमात्र के सिवाय तीन प्रकार के आहार के त्याग का उपदेश करते हुए चतुर्विध आहार के त्यागका अवसर बतलाते हैं ॥६।१२७।। खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पञ्चनमस्कारमनास्तनु त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥७॥ खरपानहापनामपि कृत्वा । कथं ? शक्त्या स्वशक्तिमनतिक्रमेण स्तोकस्तोकतरादिरूपं । पश्चादुपवासं कृत्वा तनुमपि त्यजेत् । कथं ? सर्वयत्नेन सर्वस्मिन् व्रतसंयम चारित्रध्यानधारणादौ यत्नस्तात्पर्य तेन । किविशिष्टः सन् ? पंचनमस्कारमना: पंचनमस्कारहितचित्तः ॥७॥ आगे तत्पश्चात् वह क्या करता है, यह कहते हैं पश्चात् ( खरपानहापनाम् अपि ) गर्म जल का भी त्याग ( कृत्वा ) करके ( शक्त्या ) शक्ति के अनुसार ( उपवासम् अपि ) उपवास भी ( कृत्वा ) करके (सर्वयत्नेन) पूर्ण तत्परता से ( पञ्चनमस्कारमनाःसन् ) पञ्चनमस्कार मन्त्र में मन लगाता हुआ (तनु) शरीर को (त्यजेत्) छोड़े। टीकार्थ--तत् पश्चात् उस गर्म जल का भी त्यागकर अपनी शक्ति का अतिक्रमण नहीं करके कुछ उपवास भी करे। और अन्त में यत्नपूर्वक व्रत-संयम-चारित्र, ध्यान-धारणादि सभी कार्यों में तत्पर रहते हुए पंचनमस्कार मन्त्र में अपने चित्त को लगाते हुए शरीर को भी छोड़ देवे । विशेषायं-पूर्व श्लोक में बतलाया था कि वह क्षपक आहारादि का क्रम से त्याग करते हुए गर्म जल को ग्रहण करता है । यदि क्षपक को पित्त सम्बन्धी रोग है, अथवा ग्रीष्म आदि ऋतु है, मरुस्थल आदि प्रदेश है, इस प्रकार तृषा परीषह के उद्रेक को सहन न कर सकने का कोई कारण हो तो गुरु की अनुज्ञा से मैं जल का उपयोग
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy