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________________ ३०० ] रत्नकरण्ड श्रावकामार आहार के लोभ से हिंसा, असत्य, परधनलम्पटता, अब्रह्म और बहु परिग्रह संचय आदि सब पाप करते हुए तथा दुर्ध्यान से कुकर्म करते हुए, आहार गद्धतावश दीन-हीनवृत्ति से पराधीन होकर अभक्ष्य भक्षण किया । न रात्रि-दिन का ही विचार किया न अपने स्वाभिमान का विचार किया। आहार का लम्पटी निर्लज्ज होकर आचार-विचार से शुन्य हो जाता है, अनेक दुर्वचन सहन करता है । आहार के लिए तियंचगति में एक दूसरे को मारते हैं । एक दूसरे का भक्षण कर लेते हैं, इतना ही नहीं भूख से पीड़ित होकर कुत्ता, बिल्ली, सर्प आदि तो एकी सन्तानों का भी कर लिया करते हैं। संसार की बड़ी विचित्र स्थिति है । इस पर्याय में अब मेरा जितना काल शेष है उसमें मुझे रसना इन्द्रिय की गृद्धता को छोड़कर कभी उपवास कभी बेला, कभी तेला कभी एक बार भोजन करना कभी नीरस भोजन, तो कभी अल्प भोजन करना चाहिए।' इस प्रकार अपनी शक्ति के प्रमाण और अपनी आयु की स्थिति के प्रमाण आहार को घटाते हुए वह क्षपक कवलाहार का त्याग करके दूध आदि स्निग्धपदार्थों का सेवन करता है। निर्यापकाचार्य क्षपक के सामने विभिन्न प्रकार के आहार को दिखाते हैं, यदि क्षपक की किसी आहार में लोलुपता दिखाई देती है तो निपिकाचार्य समझाते हैं कि हे क्षपकराज ! तुमने इस प्रकार के आहार को अनादिकाल से बहुत ग्रहण किया है किन्तु अभी तक तृप्ति नहीं हुई, तो अब कुछ समय में कैसे तृप्ति हो सकती है, अतः अब भोजन के राग को छोड़ना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार उपदेश के द्वारा नियपिकाचार्य भोजन विषयक राग का त्याग करा देते हैं फिर क्रम से स्निग्ध पदार्थों का भी त्याग कराकर छाछ का सेवन कराते हैं, पश्चात् छाछ का भी त्याग कराके मात्र गर्म जल को ग्रहण कराते हैं । जिस प्रकार सब आभूषणों में चूड़ामणि मस्तक पर धारण किया जाता है, उसी प्रकार यह सल्लेखना सब व्रतों का चूड़ामणि है। क्योंकि इसके धारण से ही सब व्रत सफल होते हैं। समाधिमरण कराने वाले निर्यापकाचार्य को निपुण अर्थात सूक्ष्मदृष्टि से सम्पन्न कहा है क्योंकि वह क्षपक के रोग, देश, काल, सत्व, बल, परीषह सहन करने की क्षमता, संवेग, वैराग्य आदि का सूक्ष्मदृष्टि से विचार करता है तब वह आहार का त्याग कराता है ।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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