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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ २९९ स्निग्धं दुग्धादिरूपं पानं । यिवर्धयेत् परिपूर्ण दापयेत् । किं कृत्वा ? परिहाप्य परित्याज्य । कं ? आहार कवलाहाररूपं । कथं ? क्रमशः प्रागशनादिक्रमेण पश्चात् खरपानं कजिकादि, शुद्धपानीयरूपं वा। किं कृत्वा ? हापयित्वा । कि? स्निग्धं च स्निग्धमपि पानकं । कथं ? क्रमशः । स्निग्धं हि परिहाप्य कजिकादिरूपं खरपानं पूरयेत् विवधयेत् । पश्चात्तदपि परिहाप्य शुद्धपानीयरूपं खरपानं पूरयेदिति ।।६।।
____ अब, सल्लेखना करने वाले के लिए आहार त्याग का क्रम दिखलाते हुए कहते हैं
(क्रमश:) क्रम से ( आहार ) कवलाहार को ( परिहाप्य ) छुड़वाकर (स्निग्धं पानं) दुध आदि स्निग्धपेय को (विवर्द्धयेत्) बढ़ाये (च) पश्चात (क्रमश:) क्रम से (स्निग्धं) दूध आदि स्निग्धपेय को (हापयित्वा) छुड़वाकर (खरपान) कांजी आदि खरपान को (पूरयेत्) बढ़ावे ।
टोकार्थ-सल्लेखना को ग्रहण करने वाला आहारादि को इस क्रम से छोड़ेपहले कवलाहाररूप दाल-भात, रोटी आदि आहार को छोड़े और दूध आदि स्निग्धरूप पेय पदार्थों को ग्रहण करे । पश्चात् उसे भी छोड़कर खरपान-चिकनाई से रहित पेयपदार्थो कांजी, छाछ आदि को ग्रहण करे। फिर उसे भी छोड़कर केवल गर्म जल ग्रहण करे।
विशेषार्थ–सल्लेखना लेने वाला क्षपक एक साथ चारों प्रकार के आहार को न छोड़कर क्रम से छोड़ता है, क्योंकि एक साथ छोड़ने से आकुलता-व्याकुलता उत्पन्न हो सकती है इसलिए वह शक्ति के अनुसार क्रम-क्रम से आहारादि का त्याग करता है। अर्थात् पहले अन्न-दाल, भात, रोटी आदि खाद्य पदार्थों का त्याग करता है । आहार के आस्वादन में विरक्त हुआ वह क्षपक विचार करता है कि 'हे आत्मन् ! संसार में परिभ्रमण करते हुए तूने इतना आहार किया है कि एक-एक कण भी यदि एकत्र किया जावे तो अनन्त सुमेरु प्रमाण राशियों के ढेर लग जायें और इतना जल पीया कि एक-एक बून्द भी एकत्र करे तो अनन्त समुद्र भर जायें, इतने आहार और जल से भी जब तृप्ति नहीं हो सकी तो अब रोग, बुढापा आदि से तो प्रत्यक्ष मृत्यु दिखाई दे रही है तो इतने समय में अब क्या तृप्ति हो सकती है, इस पर्याय में भी नित्य आहार ग्रहण किया और आहार का लोभी होकर घोर आरम्भादि किया तथा