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रत्नकरण्ड श्रावकाचार हे आत्मन् ! रोग आने पर ऐसा विचार करना चाहिए कि नरकों में इस जीव ने ऐसे कौन से दुःख हैं जो नहीं भोगे हैं। शरीर में कितने रोग होते हैं उसका वर्णन करते हुए बतलाया है
"याधे कोट्यः पंच भवन्त्यष्टाधिक षष्टि लक्षाणि, नब नवति सहस्राणि पंचशती चतुरशीत्यधिका । एतत्संख्यान् महारोगाम् पश्यन्नपि न पश्यति,
इन्द्रिये मोहितो मूढ़ परलोक पराड मुखः ॥"
अर्थ: एता शरीर में पात्र बारोड़, अड़सठ लाख, निन्यानवे हजार, पाँचसौ चौरासी रोग होते हैं । नारकियों के इन सभी रोगों की उद्भूति एक साथ रहती है। नरकों में अनन्तबार मारा गया, चीरा गया, फाड़ा गया तथा सागरोपर्यन्त एक कण अन्न खाने को नहीं मिला और न एक बून्द पानी पीने को मिला, अब यहाँ क्या दुःख है, रोग तो मेरा महान् उपकारी है, यदि रोग नहीं आता तो मेरा शरीर से ममत्व भी नहीं घटता तथा मैं परमात्मा की शरण भी ग्रहण नहीं करता, इसलिये इस अवसर पर यह रोग तो मुझे प्रेरणा देने वाला परम मित्र है । ऐसा विचार करता हआ ज्ञानी रोग आने पर क्लेश नहीं करता ।।
जिन्होंने समस्त श्रु तज्ञान का पठन, मनन, चिन्तन किया, धर्मध्यान सहित शरीरादि से भिन्न अपने आपको जाना है, भयरहित समाधिमरण के निमित्त ही उन्होंने विद्या की आराधना करके अपना काल ध्यतीत किया है, चारों आराधनाओं का शरण ग्रहण करके अपने ज्ञायक स्वभाव का अवलम्बन लेकर जो मरण करता है तो स्वर्गलोक में महद्धिक देव होकर वहां से आकर श्रेष्ठ कुल में जन्म लेकर उत्तम संहनन आदि सामग्री प्राप्त करके दीक्षा धारण करके अपने रत्नत्रय की पूर्णता करके निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है ॥५॥१२६।।
इदानीं सल्लेखनां कुर्वाणस्याहारत्यागेक्रमं दर्शयन्नाह
आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्द्धयेत्पानम् । स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः ॥६॥