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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
करूगा, इस प्रकार का प्रत्याख्यान स्वीकार करे। क्योंकि उसके बिना उसकी समाधि सम्भव नहीं होगी । जब उसकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाये और मरण निकट हो तो क्षपक उस जल का भी त्याग कर उपवास धारण करे, तत्पश्चात् जितनी शक्ति रहे उसके अनुसार पंचनमस्कार मन्त्र का तथा द्वादश अनुप्रेक्षा का चिन्तन करे, शक्ति के और अधिक क्षीण होने पर अरहन्त-सिद्ध का ध्यान करे । जब शक्ति एक दम क्षीण हो जाय तब अमृत के समान मधुर वचनों से क्षपक को सम्बोधित करते हुए धर्मवात्सल्य अंग के धारक स्थितीकरण में सावधान नियपिकगण निरन्तर चार आराधना पंचगरस्कारको मा एकर से बड़ी बीरता से श्रवण करावे ताकि सुनने से क्षपक के निर्बल शरीर में, मस्तक में वचनों के आघात से कष्ट न हो, उपयोग की स्थिरता रहे। नियपिकाचार्य क्षपक को सावधान करते हुए उपदेश देवें । हे क्षपकराज ! सम्यक्त्व की भावना करो। अरहन्त आदि पंचपरमेष्ठी में, उनके प्रतिबिम्बों में और निश्चयव्यवहार रत्नत्रय में भक्ति बढ़ाओ, अरहन्तादि के गुणों के अनुराग पूर्ण ध्यान में उपयोग लगाओ। क्रोधादि कषायों का अत्यन्त निग्रह करो और मुक्ति के लिए आत्मा में आत्मा से आत्मा को देखो।
आचार्य क्षपक को इस प्रकार शिक्षा देवें-हे आर्य ! तुम्हारी यह आगम प्रसिद्ध अन्तिम सल्लेखना है, अतः अत्यन्त दुर्लभ इस सल्लेखना को अतिचाररूपी पिशाचों से बचाओ। पंचनमस्कार में मनको स्थिर करो। इस प्रकार वह क्षपक यावज्जीवन उपवास धारण करते हुए मन को पंचपरमेष्ठियों में स्थिर करते हुए अन्त में समताभावपूर्वक शरीर का परित्याग करे । शरीर के त्याग के साथ सल्लेखना विधि भी पूर्ण हो जाती है ।।७।१२८।।
अधुना सल्लेखनाया अतिचारानाहजीवितमरणाशंसे भयमित्रस्मृतिनिदाननामानः । सल्लेखनातिचाराः पञ्च जिनेन्द्र : समाविष्टाः ॥८॥
जीवितं च मरणं च तयोराशंसे आकांक्षे । भयमिहपरलोकभयं । इहलोकभयं हि क्षुत्पिपासापीडादिविषयं, परलोकभयं-एवंविधदुर्धरानुष्ठानाविशिष्टं फलं परलोके भविष्यति न वेति । मित्रस्मृतिः बाल्याद्यवस्थायां सहक्रीडितमित्रानुस्मरणं । निदानं