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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
महल को प्राप्त करने जा रहा है तो इसका महा: समाना चाहिए । इसमें भय का क्या काम ? वहां तो दिव्य वैक्रियिकशरीर मिलेगा, अनेक ऋद्धियों सहित देवों के द्वारा आदर सत्कार को प्राप्त होओगे, यदि अपने ज्ञानस्वरूप का घात करोगे और ममता सहित मरण करोगे तो एकेन्द्रियों में जन्म लेकर ज्ञान का नाश होकर जड़ जैसी अवस्था प्राप्त हो जायेगी, इसलिये क्लेश मत करो।
अपने कर्तव्य का फल तो मत्यु होने पर ही मिलता है। षदकाय के जीवों का रक्षण किया, राग-द्वेष आदि को छोड़कर अन्याय अनीति कुशील आदि दुष्कार्यों को त्यागकर जो सन्तोष धारण किया, अपनी आत्मा को अभयदान दिया, उसका फल तो स्वर्गलोक के बिना और कहाँ जाकर भोगोगे, स्वर्गलोक का सुख तो मृत्युरूपी मित्र के प्रसाद से ही प्राप्त होता है। इसलिए शरीर और कुटुम्बीजनों का ममत्व करके चिन्तामणि, कल्पवृक्ष के समान समाधिमरण को बिगाड़कर कुमरण करके दुर्गति में जाना उचित नहीं है।
कर्मरूपी शत्रु ने मेरी आत्मा को इस शरीररूपी पिंजरे में डाल रखा है और मैं इन्द्रियों के आधीन होकर नित्य ही क्षुधा, तृषा आदि दुःखों को भोग रहा हूँ, कुटुम्बीजनों के आधीन रहकर महान् बन्दीगृह के समान इस शरीर से मरण के बिना कोन निकाल सकता है । इस कृतघ्न शरीर से तो मृत्युरूपी राजा ही निकालने में समर्थ है। यह समाधिमरण नामका बड़ा न्यायवन्त राजा है, मेरे लिए तो यही शरण है।
इस सप्त धातुमय अत्यन्त अशुचि बिनाशीक शरीर को छोड़कर दिव्य वैक्रियिक शरीर की प्राप्ति होना और वहां अनेक दिव्यसुख सम्पदा की प्राप्ति होना यह सब प्रभाव समाधिमरण का है । समाधिमरण के समान इस जीव का कोई भी उपकारी नहीं है, इस जीव ने चतुर्गति में जन्म-मरण के अनन्त दःख भोगे हैं। संसारपरिभ्रमण से छुड़ाने वाला कोई भी नहीं है, कदाचित् अशुभकर्म के मन्द उदय से मनुष्यगति, उच्चकुल, इन्द्रियों की पूर्णता, सन्त समागम, भगवान को दिव्य देशना को सुनकर श्रद्धान, ज्ञान, संयम प्राप्त कर चार आराधना की शरण प्राप्त करके, मरण होना ही जीव के लिए महान् हित है, इसलिए संसार-परिभ्रमण से छूटना है तो समाधिमरण की शरण ग्रहण करो।