SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्नकरपट श्रावकामार [ २९५ संयोग की तरह त्यागने योग्य है, सभी दुःखों का बीज है, महान संताप और उद्वेग को करने वाला है। सल्लेखना लेने वाले को यह विचार नहीं करना चाहिए कि ये मेरे माता, पिता, स्त्री, पुत्रादिक मेरे से छूट रहे हैं, इनका क्या होगा? इनके जीवन का निर्वाह कैसे होगा ? इत्यादि । तथा मैंने सल्लेखना तो ले ली है परन्तु भूख-प्यास आदि की बाधा सहन कर सकूगा या नहीं ? इत्यादि संक्लेश नहीं करना चाहिए । विचार करना चाहिए कि ऐसे शरीर के वियोग का क्या शोक करना, ज्ञानी तो शोक को छोड़कर मरण का भय नहीं करता है अत: मुझे भी विषाद, स्नेह, कलुषता तथा अरतिभाव को त्यागकर उत्साह साहस धैर्य धारण करते हुए श्रुतज्ञानरूप अमृत का पान करके मनको तृप्त करना चाहिए । मृत्यु-महोत्सव में बतलाया है कि समाधिस्थ व्यक्ति कंसी भावना करता है, कि मैंने अनादिकाल से संसार में भ्रमण करते हुए अनेक कुमरण किये हैं। एक बार भी यदि मेरा समीचीन मरण हो जाता तो मैं अनन्त संसार का भाजन नहीं होता । जहां शरीर तो मर जावे किन्तु आत्मा के सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का विषय-कषाय के द्वारा धात न हो वही सम्यकमरण है। मिथ्या श्रद्धान से शरीर के नाश को आत्मा का नाश मानकर संक्लेश करना कुमरण है। इसलिये हे वीतराग देव ! मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि मरण के समय मुझे वेदनामरण तथा आत्मज्ञान रहित मरण नहीं होथे। हे आत्मन् ! तुम्हारा रूप तो ज्ञान है, जिसमें समस्त पदार्थ प्रकाशित होते हैं और यह शरीर अस्थि, मांस, चर्ममय दुर्गन्धयुक्त, विनाशीक है इसलिए तुम्हारा रूप इससे अत्यन्त भिन्न है । कर्म के निमित्त से इसका सम्बन्ध शरीर के साथ हो रहा है, आत्मा तो अखण्ड ज्ञायक स्वभावी है। इसलिये शरीर के नाश का भय नहीं करना चाहिए । भो ज्ञानिन् ! इस मृत्युरूपी महान् उत्सव को प्राप्त करके क्यों भय करते हो? जिस प्रकार कोई ध्यक्ति एक जीर्णकुटी से निकलकर अन्य नवीन महल में रहने के लिए जब जाता है तो बड़ा उत्सब मनाता है, इसी प्रकार यह आत्मा भी अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता हुआ इस शरीररूपी पुरानी झोपड़ी से निकलकर नवीन शरीररूपी
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy