SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९४ ] तदित्याह - शोकमित्यादि । शोकं इष्टवियोगे तद्गुणशोचनं भयं क्षुत्पिपासादि पीड़ा निमित्त मिलोकादिभयं वा अवसादं विषादं खेदं वा क्लेदं स्नेहं कालुष्यं क्वचिद्विषये रागद्वेषपरिणति । न केवलं प्रागुक्तमेव अपि तु अरतिमपि, अप्रसत्तिमपि । न केवलमेतदेव कृत्वा किन्तु उदीर्य च प्रकाश्य च । कं ? सत्त्वोत्साहं सल्लेखनाकरणेऽकात रत्वं ॥ ५॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार आगे, इस प्रकार की आलोचना कर तथा महाव्रत धारण कर यह कार्य करना चाहिए यह कहते हैं ( शोक) शोक, ( भयं ) भय, (अवसाद) खेद, ( क्लेद ) स्नेह, ( कालुष्यं ) द्वेष और ( अरतिमपि) अप्रीति को भी ( हित्वा ) छोड़कर (च) तथा ( सत्त्वोत्साहं ) धैर्य और उत्साह को ( उदीर्यं ) प्रकटकर ( श्रुतैः अमृतैः ) शास्त्ररूप अमृत के द्वारा ( मन ) चित्तको ( प्रसाद्यम् ) प्रसन्न करना चाहिए । टीकार्थ - इष्ट का वियोग होने पर उसके गुणों का बार-बार चिन्तन करना शोक कहलाता है । क्षुधा तृषा आदि की पीड़ा के निमित्त से जो डर लगता है, वह भय कहलाता है अथवा इहलोकभय, परलोकभय ( व्याधि, मरण, असंयम, अरक्षण, आकस्मिक ) आदि के भेद से भय सात प्रकार का है । विषाद अथवा खेद को अवसाद कहते हैं । स्नेह को लेव कहते हैं। किसी के विषय में राग द्वेष की जो परिणति होती है उसे कालुष्य कहते हैं । अप्रसन्नता को अरति कहते हैं । सल्लेखना करने में जो कायरता का अभाव है उसे सत्वोत्साह कहते हैं । सल्लेखना करने वाला इन शोकादि को छोड़कर शास्त्ररूपी अमृत के द्वारा मनको प्रसन्न करे। यहां पर संसार के दुःखों से उत्पन्न हुए सन्ताप को दूर करने के लिए शास्त्र को अमृत कहा गया है । अतः सल्लेखना धारण करने वाला मनुष्य अपने मन को शास्त्र के पठन- श्रवण में लगावे । विशेषार्थ – अनादिकाल से ही संसारी जीव की बुद्धि पर्याय में लगी हुई है, इसलिये वह पर्याय के नाश को अपना नाश मानता है । इस पर्याय बुद्धि मिथ्यादृष्ट को धन, परिग्रह, स्त्री, पुत्र, मित्र बांधवादिक जितने भी संयोग हैं उनका वियोग होने पर शोक होता है, सम्यग्दृष्टि इनके वियोग पर भी शोक नहीं करता है । जिसने सल्लेखना धारण की है, वह विचार करता है है आत्मन् ! पर्यायें तो अनन्तानन्त ग्रहण की हैं और छोड़ी हैं । यह शरीर तो रोगों की उत्पत्ति का स्थान है, महाकृतघ्न है, नाशवन्त है, आत्मा को सभी प्रकार से दुःख क्लेश उत्पन्न करने वाला है, दुष्ट के
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy