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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ २८७ पुरुष के रागादि के अभाव में आत्मघात कैसे हो सकता है ? हाँ, जो कोधादि कषायों में आकर श्वास निरोध, जल, अग्नि, विष या शस्त्रघात द्वारा प्राणों का घात करता है उसके आत्मघात अवश्य होता है । किन्तु रत्नत्रय की रक्षा के लिए आहारादि का त्याग किया जाता है वह अवश्य ही सल्लेखना है । इसी को समाधिमरण भी कहते हैं । सल्लेखना के भी तीन भेद हैं- भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन । जिसमें नियम अथवा यमरूप से आहारादि का त्याग किया जाता है उसे भक्तप्रत्याख्यान कहते हैं । इसका उत्कृष्ट काल बारह वर्ष और जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और अन्तर्मुहूर्त से ऊपर और बारह वर्ष के बीच का समय मध्यमकाल कहलाता है । समय की अवधि लेकर जो आहार का त्याग किया जाता है वह नियमरूप त्याग कहलाता है । तथा जीवन पर्यन्त के लिए आहार का त्याग किया जाता है वह यमरूप त्याग है । भक्त प्रत्याख्यान नामक संन्यासमरण में क्षपक अपने शरीर की दहल स्वयं भी करता है और दूसरों से भी करवाता है, किन्तु जिस संन्यासमरण में अपने शरीर की सेवा स्वयं करता है, अन्य से नहीं करवाता वह इंगिनीमरण है । जिस संन्यासमरण में अपने शरीर की टहल न तो स्वयं करता है और न दूसरों से ही करवाता है, वह प्रायोपगमन संन्यासमरण है || १ || १२२ ॥ सल्लेखनायां भयैनियमेन प्रयत्नः कर्त्तव्यः, यतः - अन्तक्रियाधिकरणं तपः फलं सकलर्दाशिनः स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ॥२॥ सकलदर्शिनः स्तुवते प्रशंसन्ति । किं तत् ? तपः फलं तपसः फलं तपः फलं सफलं तप इत्यर्थः । कथंभूतं सत् ? अन्तः क्रियाधिकरणं अन्ते क्रिया संन्यासः तस्या अधिकरणं समाश्रयो यत्तपस्तत्फलं । यत एवं तस्माद्यावद्विभवं यथाशक्ति । समाधिमरणे प्रयतितव्यं प्रकृष्टो यत्नः कर्त्तव्यः ॥ २ ॥ सल्लेखना के विषय में भव्य जीवों को नियम से प्रयत्न करना चाहिए । क्योंकि
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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