________________
...
.
२८६ ]
रत्नकरण्ड श्रावकाचार कहते हैं । ये चारों इस रूप में उपस्थित हो जायें कि जिनका प्रतिकार नहीं हो सके तब रत्नत्रयधर्म की आराधना करने के लिए शरीर छोड़ने को सल्लेखना कहते हैं । किन्तु स्व और पर के प्राणघात के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है, वह सल्लेखना नहीं है।
विशेषार्थ-संसारी जीवों का मरण तीन प्रकार का है, च्युत, च्यावित और त्यक्त । आयु पूर्ण होने पर मृत्यु के द्वारा जो शरीर छूटता है उसे च्युत कहते हैं । आयु पूर्ण हुए बिना ही विष खा लेने से भयंकर वेदना उपस्थित हो जाने से, शरीर का रक्त समाप्त हो जाने से, अत्यन्त भय उपस्थित होने से, शस्त्र घात से, संक्लेश से, आहार के निरोध और श्वास के निरोध से असमय में शरीर छूट जाता है, वह च्यावित है। इसका नाम कदलीघात भी है जैसे-काटने से केला झट कट जाता है उसी प्रकार आकस्मिक मृत्यु में झट मरण हो जाता है इसलिये इसको कदलीघात भरण कहते हैं । तथा ऐसा घोर उपसर्ग आदि उपस्थित हो जावे कि जिसका प्रतिकार करना कठिन है उस अवसर पर रत्नत्रयधर्म की रक्षा के लिए जो शरीर छोड़ा जाता है उसे त्यक्त कहते हैं । धर्म की रक्षा के लिए शरीर की उपेक्षा करना आत्मघात नहीं है। जैनधर्म में समाधिपूर्वक मरण तभी किया जाता है जब मरण टालने से भी नहीं टलता । शरीर धर्म का साधन रहे तब तक रक्षा करने योग्य है, किन्तु उसकी रक्षा के पीछे धर्म का ही विनाश हो तो शरीर को बचाना अधर्म है ।
पूज्यपादस्वामी ने सर्वार्थ सिद्धि (७।२२) में एक दृष्टान्त दिया है। जैसे-- एक व्यापारी जो अनेक प्रकार की विक्रय वस्तुओं के लेन-देन और संचय में लगा हुआ है। वह अपने माल और घर को नष्ट करना नहीं चाहता। यदि घर में आग लग जाये तो उसे बचाना तो शक्य नहीं है तो घर की चिन्ता नहीं करके घर में भरे हुए माल को बचाने की कोशिश करता है। उसी प्रकार गृहस्थ भी व्रत, शील रूपी धन के संचय में लगा हुआ है। वह यह नहीं चाहता कि जिस शरीर के द्वारा यह धर्म का ध्यापार चलता है वह नष्ट हो जाय, यदि शरीर में रोगादिक होते हैं तो अपने व्रत, शील की रक्षा करते हुए शरीर की चिकित्सा करता है। किन्तु जब देखता है कि शरीर को बचाना शक्य नहीं है तो शरीर की चिन्ता न करके अपने धर्म का नाश न हो, ऐसा प्रयत्न करता है ऐसी स्थिति में वह आत्मघात नहीं कहलाता है। अमृत चन्द्राचार्य ने कहा है-जब मरण अवश्य होने वाला है तब कषायों को कृश करने में लगे हुए
AIRE
।