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________________ B fPEHRESTHAEDINESCLESEALTSPSISPERITREACHERREST सल्लेखना-प्रतिमाधिकारः पंचमः । अथ सागारेणाणुव्रतादिवत् सल्लेखनाप्यनुष्ठातव्या । सा च कि स्वरूपा कदा चानुष्ठातव्येत्याह उपसर्गे दुभिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥१॥ आर्या गणधरदेवादयः । सल्लेखनामाहुः । किं तत् ? तनुविमोचनं शरीरत्यागः । कस्मिन् सति ? उपसर्गे तिर्यक मनुष्यदेवाचेतनकृते । निःप्रतीकारे प्रतीकारागोचरे । एतच्च विशेषणं दुर्भिक्षजरारुजानां प्रत्येक सम्बन्धनीयं । किमर्थं तद्विमोचन ? धर्माय रत्नत्रयाराधनार्थं न पुन: परस्य ब्रह्महत्याधयं ।।१।। आगे गृहस्थ को अणुव्रतादि के समान सल्लेखना भी धारण करनी चाहिए। उस सल्लेखना का क्या स्वरूप है तथा किस समय धारण करने योग्य है, यह कहते हैं (आर्याः) गणधरादिक देव ( निःप्रतीकारे) प्रतीकार रहित ( उपसर्गे ) उपसर्ग, (दुभिक्षे) दुष्काल, (जरसि) बुढ़ापा (च) और (रुजायां) रोग के उपस्थित होने पर (धर्माय) धर्म के लिए (तनुविमोचनं) शरीर के छोड़ने को ( सल्लेखना ) सल्लेखना (आहुः) कहते हैं। टोकार्ष-उपद्रव को उपसर्ग कहते हैं, वह तिथंच, मनुष्य, देव और अचेतनकृत इस प्रकार चार प्रकार का है । जब अन्न की एक दम कमी हो जाती है सभी जीव-जन्तु भूख से पीड़ित होने लगते हैं वह दुर्भिक्ष-अकाल कहलाता है । वृद्धावस्था के कारण शरीर अत्यन्त जीर्ण हो जाता है उसे जरा कहते हैं। रोग की उद्भति को रुजा
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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