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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
( सकलदर्शिनः ) सर्वज्ञ भगवान ( अन्तक्रियाधिकरण ) संन्यास धारण करने को ( तपः फलं ) तप का फल ( स्तुवते ) कहते हैं ( तस्मात् ) इसलिए ( यावद्विभवं ) यथाशक्ति ( समाधिमरणे ) समाधिमरण के विषय में ( प्रयतितव्यं ) प्रयत्न करना चाहिए ।
टोकार्थ- - अन्तिम समय में यानी जीवन के अन्त में संन्यास धारण करना ही तप का फल है, तप की सफलता है, ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं । अथवा सर्वदर्शी उसी तप के फल की प्रशंसा करते हैं, जो अन्त समय संन्यास का आश्रय लेता है, अतः समाधिमरण के लिए पूर्णरूप से प्रयत्न करना चाहिए ।
विशेषार्थ - जिस प्रकार चिरकाल तक शस्त्र संचालन का अभ्यास करने वाला राजा युद्ध में हार जाता है तो उसका राज्य छिन जाता है, और उसे दुःखदायी अपयश मिलता है, उसका किया हुआ शस्त्र - अभ्यास निष्फल हो जाता है, उसी प्रकार चिरकाल तक धर्म की आराधना करने वाला यति मरते समय दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन आराधनाओं में चूक जावे तो उसका सल्लेखनापूर्वक मरण नहीं होता क्योंकि तप धारण करने का फल यही है कि अन्तिम सल्लेखना धारण करना । वह धनुर्धारी कैसा जो युद्ध में बाण चलाना भूल जाये, इसी प्रकार वह तपस्वी कैसा जो मरणकाल उपस्थित होने पर भी स्थिर रहकर धर्माराधना न करे अर्थात् संन्यासपूर्वक प्राणों का विसर्जन न करे । इसलिए अपनी शक्ति के अनुसार अन्त में संन्यास धारण करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए ।
मृत्युकाल में धर्म की विराधना नहीं करनी चाहिए। सोमदेवसूरि ने भी कहा है, यदि मरते समय मन मलिन हो गया तो यम नियम, स्वाध्याय, तप, देवपूजा, विधि, दान ये सब निष्फल हैं। अन्यत्र भी कहा है- जैसे असंख्यात करोड़ों वर्षों में बाँधा हुआ कर्म सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होने पर एक क्षण में नष्ट हो जाता है उसी प्रकार से अन्तिम समय में की गई धर्माराधना से भी कर्मक्षय होता है ||२|| १२३ ।।
तत्र यत्नं कुर्वाण एवं कृत्वेदं कुर्यादित्याह —
स्नेहं वरं संगं परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनैः ॥३॥